ब्रह्मंस्पति सूक्तं/Brahmanaspati Suktam
ब्रह्मंस्पति सूक्तं/Brahmanaspati Suktam
उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे।
उप प्र यन्तु मरुत सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा ॥१॥
अर्थ- हे ज्ञान के स्वामिन् ! उठिये, देवत्व की इच्छा करने वाले हम तुम्हारी प्रार्थना करते हैं। उत्तम दानी मरुत् वीर साथ-साथ रहकर यहाँ आ जायें। हे इन्द्र! सबके साथ रहकर इस सोमरस का पान कीजिये ॥१॥
त्वामिद्धि सहसस्पुत्र मर्त्य उपब्रूते धने हिते।
सुवीर्य मरुत आ स्वश्व्यं दधीत यो व आचके ॥२॥
अर्थ- हे बल के लिये उत्पन्न होने वाले वीर! मनुष्य युद्ध छिड़ जाने पर तुम्हें ही सहायतार्थ बुलाता है। हे मरुतो! जो तुम्हारे गुण गाता है, वह उत्तम घोड़ों से युक्त और उत्तम वीरता वाला धन पाता है ॥२॥
प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता।
अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः ॥३॥
अर्थ- ज्ञानी ब्रह्मणस्पति हमारे पास आ जायँ, सत्यरूपिणी देवी भी आयें। सब देव मनुष्यों के लिये हितकारी, पंक्ति में सम्मान योग्य, उत्तम यज्ञ करने वाले वीर को हमारे पास ले आयें ॥३॥
यो वाघते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रवः।
तस्मा इळां सुवीरामा यजामहे सुप्रतूर्तिमनेहसम् ॥४॥
अर्थ- जो यज्ञ कर्ता को उत्तम धन देता है, वह अक्षय यश प्राप्त करता है। उसके हितार्थ हम उत्तम वीरों से युक्त, शत्रु का हनन करने वाली, अपराजित मातृ भूमि की प्रार्थना करते हैं ॥४॥
प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम्।
यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे ॥५॥
अर्थ- ब्रह्मणस्पति उस पवित्र मन्त्र का अवश्य ही उच्चारण करता है, जिसमें इन्द्र, वरुण, मित्र, अर्यमा आदि देवों ने अपने घर बनाये हैं ॥५॥
तमिद् वोचेमा विदथेषु शंभुवं मन्त्रं देवा अनेहसम्।
इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेद् वामा वो अश्नवत् ॥६॥
अर्थ- हे देवो! उस सुखदायी अविनाशी मन्त्र को हम यज्ञ में बोलते हैं। हे नेतालोगो। इस मन्त्र रूप वाणी की यदि प्रशंसा करोगे तो सभी सुख तुम्हें मिलेंगे ॥६॥
को देवयन्तमश्नवज् जनं को वृक्तबर्हिषम।
प्रप्र दाश्वान् पस्त्याभिरस्थिताऽन्तर्वावत् क्षयं दधे ॥७॥
अर्थ- देवत्व की इच्छा करने वाले मनुष्य के पास ब्रह्मणस्पति को छोड़कर कौन भला दूसरा आयेगा आसन फैलाने वाले उपासक के पास दूसरा कौन आयेगा दाता अपनी प्रजा के साथ प्रगति करता है, सन्तानों वाले घर का आश्रय करते हैं ॥७॥
उप क्षत्रं पृञ्चीत हन्ति राजभिर्भये चित् सुक्षितिं दधे।
नास्य वर्ता न तरुता महाधने नार्भ अस्ति वज्रिणः ॥८॥
अर्थ- ब्रह्मणस्पति क्षात्र बल का संचय करता है, राजाओं की सहायता से यह शत्रुओं को मारता है, महाभय के उपस्थित होने पर भी वह उत्तम धैर्य को धारण करता है। इस वज्रधारी के साथ होने वाले बड़े युद्ध में इसका निवारण करने वाला और पराजित करने वाला कोई नहीं है और छोटे युद्ध में भी कोई नहीं है ॥८॥