हिरण्यगर्भा सूक्तं | Hiranyagarbha Suktam
हिरण्यगर्भा सूक्तं (Hiranyagarbha Suktam)
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्॥
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥
अर्थ- सृष्टि के आदि में था हिरण्यगर्भ ही केवल जो सभी प्राणियों का प्रकट अधीश्वर था। वही धारण करता था पृथिवी और अंतरिक्ष आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें|
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः॥
यस्य छायामृतम् यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ २ ॥
अर्थ- आत्मा और देह का प्रदायक है वही जिसके अनुशासन में प्राणी और देवता सभी रहते हैं मृत्यु और अमरता जिसकी छाया प्रतिबिम्ब हैं। आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें |
यः प्राणतो निमिषतो महित्वै क इद्राजा जगतो बभूव॥
यः ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ३ ॥
अर्थ- प्राणवान् और पलकधारियों का महिमा से अपनी एक ही है राजा जो संपूर्ण धरती का स्वामी है जो द्विपद और चतुष्पद जीवों का आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से ।- हिरण्यगर्भा सूक्तं
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः॥
यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ४ ॥
अर्थ- हिमाच्छन्न पर्वत ये महिमा बताते हैं जिसकी नदियों सहित सागर भी जिसकी यश-श्लाघा है, जिसकी भुजाओं जैसी हैं दिशायें शोभित आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळहा येन स्वः स्तभितं येन नाकः॥
यो अंतरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ५ ॥
अर्थ- गतिमान अंतरिक्ष, जिसमें धरती संधारित है आदित्य और देवलोक का जिसने है किया स्तम्भन अंतरिक्ष में जल की जो संरचना करता है,आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें।
यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने॥
यत्राधि सूर उदतो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ६ ॥
अर्थ- सबकी संरक्षा में खड़े आलोकित द्यावा पृथिवी अंतःकरण में हैं निहारा करते जिसको जिससे उदित होकर सूरज सुशोभित हैआओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें।
आपो ह यद् बृहतीर्विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम्॥
ततो देवानाम् समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ७ ॥
अर्थ- अग्नि के उद्घाटक और कारण हिरण्यगर्भ के भी एक वह देव तब प्राणरूप से जिसने की रचना जल में जब सारा संसार ही निमग्न था । आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें।
यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद् दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम्॥
यो देवेष्वधि देवः एक आसीत कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ८ ॥
अर्थ- महा जलराशि को जिसने निज महिमा से लखा यज्ञ की रचनाकारी प्रजापति की संधारक जो देवताओं के मध्य जो अद्वितीय देव है आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें।- Hiranyagarbha Suktam
मा नो हिंसीज्जनिताः यः पृथिव्या यो वा दिव सत्यधर्मा जजान॥
यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ९ ॥
अर्थ- पीडित करे न हमें धरती का है निर्माता जो सत्यधर्मा वह जो अंतरिक्ष की रचना करता पैदा की है जिसने विस्तृत सुख सलिल- राशि आओ, उस देवता की हम करें उपासना हवि से करें।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव॥
यत् कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं सरयाम पतयो रयीणाम्॥ १० ॥
अर्थ- अतिरिक्त तुम्हारे है न प्रजापति दूसरा कोई वर्तमान, भूत, भावी पदार्थों में जो रहता हमें मिले वह, यह आराधना जिस कामना से की आओ ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥