Kumar Suktam, कुमार सूक्तं

कुमार सूक्तं | Kumar Suktam

कुमार सूक्तं (Kumar Suktam)

प्रातर्युजा वि बोधयाश्विनावेह गच्छताम् । अस्य सोमस्य पीतये॥१॥

अर्थ- हे अध्वर्युगण! प्रातःकाल चेतनता को प्राप्त होने वाले अश्‍विनीकुमारो को जगायें। वे हमारे इस यज्ञ मे सोमपान करने के निमित्त पधारें॥१॥

या सुरथा रथीतमोभा देवा दिविस्पृशा । अश्विना ता हवामहे ॥२॥- कुमार सूक्तं

अर्थ- ये दोनो अश्‍विनीकुमार सुसज्जित रथो से युक्त महान रथी है। ये आकाश मे गमन करते है। इन दोनो का हम आवाहन करते है॥२॥

या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती । तया यज्ञं मिमिक्षतम्॥३॥

अर्थ- हे अश्‍विनीकुमारो। आपकी जो मधुर सत्यवचन युक्त कशा (चाबुक वाणी) है, उससे यज्ञ को सिंचित करने की कृपा करें॥३॥

नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः । अश्विना सोमिनो गृहम् ॥४॥- Kumar Suktam

अर्थ- हे अश्‍विनीकुमारो। आप रथ पर आरूढ होकर जिस मार्ग से जाते है वहाँ सोमयाग करने वाले जातक का घर दूर नही है॥४॥

हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुप ह्वये । स चेत्ता देवता पदम् ॥५॥

अर्थ- यजमान को (प्रकाश-उर्जा आदि) देने वाले हिरण्यगर्भ(हाथ मे सुवर्ण धारण करने वाले या सुनहरी किरणो वाले) सवितादेव का हम अपनी रक्षा के लिये आवाहन करते है। वे ही यजमान के द्वारा प्राप्तव्य(गन्तव्य) स्थान को विज्ञापित करनेवाले हैं॥५॥

अपां नपातमवसे सवितारमुप स्तुहि । तस्य व्रतान्युश्मसि ॥६॥

अर्थ- हे ऋत्विज! आप हमारी रक्षा के लिये सविता देवता की स्तुति करे। हम उनके लिये सोमयागादि लर्म सम्पन्न करना चाहते है। वे सवितादेव जलो को सुखा कर पुनः सहस्त्रो गुणा बरसाने वाले है॥६॥

विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः । सवितारं नृचक्षसम् ॥७॥

अर्थ- समस्त प्राणियो के आश्रयभूत,विविध धनो के प्रदाता,मानवमात्र के प्रकाशक सूर्यदेव का हम आवाहन करते हैं॥७॥

सखाय आ नि षीदत सविता स्तोम्यो नु नः । दाता राधांसि शुम्भति॥८॥

अर्थ- हे मित्रो! हम सब बैठकर सवितादेव की स्तुति करें। धन-ऐश्वर्य के दाता सूर्यदेव अत्यन्त शोभायमान है॥८॥

अग्ने पत्नीरिहा वह देवानामुशतीरुप । त्वष्टारं सोमपीतये ॥९॥

अर्थ- हे अग्निदेव! यहाँ आने की अभिलाषा रखनेवाली देवो की पत्नियो को यहाँ ले आएँ और त्वष्टादेव को भी सोमपान के निमित्त बुलायेँ॥९॥

आ ग्ना अग्न इहावसे होत्रां यविष्ठ भारतीम् । वरूत्रीं धिषणां वह ॥१०॥

अर्थ- हे अग्निदेव! देवपत्नियो को हमारी सुरक्षा के निमित्त यहाँ ले आयेँ। आप हमारी रक्षा के लिये अग्निपत्नि होत्रा, आदित्यपत्नि भारती, वरणीय वाग्देवी धिवणा आदि देवियो को भी यहाँ ले आयें॥१०॥

अभि नो देवीरवसा महः शर्मणा नृपत्नीः । अच्छिन्नपत्राः सचन्ताम् ॥११॥

अर्थ- अनवरुद्ध मार्ग वाली देवपत्नियाँ मनुष्यो को ऐश्वर्य देने मे समर्थ है। वे महान सुखो एवं रक्षण सामर्थ्यो से युक्त होकर हमारी ओर अभिमुख हो॥११॥

इहेन्द्राणीमुप ह्वये वरुणानीं स्वस्तये । अग्नायीं सोमपीतये॥१२॥

अर्थ- अपने कल्याण के लिए सोमपान के लिए हम इन्द्राणी, वरुणानी, और अग्नायी का आवाहन करते है॥१२॥

मही द्यौः पृथिवी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम् । पिपृतां नो भरीमभिः ॥१३॥

अर्थ- अति विस्तारयुक्त पृथ्वी और द्युलोक हमारे इस यज्ञकर्म को अपने अपने अंशो द्वारा परिपूर्ण करें। वे भरण-पोषण करनेवाली सामग्रीयो(सुख-साधनो) से हम सभी को तृप्त करें॥१३॥

तयोरिद्‍घृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः । गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे ॥१४॥

अर्थ- गंधर्वलोक के ध्रुवस्थान मे आकाश और पृथ्वी के मध्य मे अवस्थित घृत के समान(सार रूप) जलो (पोषक प्रवाहो) को ज्ञानी जन अपने विवेकयुक्त कर्मो (प्रयासो) द्वारा प्राप्त करते है॥१४॥

स्योना पृथिवि भवानृक्षरा निवेशनी । यच्छा नः शर्म सप्रथः॥१५॥

अर्थ- हे पृथ्वी देवी! आप सुख देने वाली, बाधा हरने वाली और उत्तमवास देने वाली है। आप हमे विपुल परिमाण मे सुख प्रदान करें॥१५॥

अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्त धामभिः ॥१६॥

अर्थ- जहाँ से (यज्ञ स्थल या पृथ्वी से) विष्णुदेव ने (पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ (उस यज्ञीय क्रम से) पृथ्वी से सप्तधामो से देवतागण हमारी रक्षा करें॥१६॥

इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूळ्हमस्य पांसुरे ॥१७॥

अर्थ- यह सब विष्णुदेव का पराक्रम है,तीन प्रकार के (त्रिविध-त्रियामी) उनके चरण है। इसका मर्म धूलि भरे प्रदेश मे निहित है॥१७॥

त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥

अर्थ- विश्वरक्षक, अविनाशी, विष्णुदेव तीनो लोको मे यज्ञादि कर्मो को पोषित करते हुये तीन चरणोसे जग मे व्याप्त है अर्थात तीन शक्ति धाराओ (सृजन, पोषण और परिवर्तन) द्वारा विश्व का संचालन करते है॥१८॥

विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा॥१९॥

अर्थ- हे याजको! सर्वव्यापक भगवान विष्णु के सृष्टि संचालन संबंधी कार्यो(सृजन, पोषण और परिवर्तन) ध्यान से देखो। इसमे अनेकोनेक व्रतो(नियमो,अनुशासनो) का दर्शन किया जा सकता है। इन्द्र(आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहे।(ईश्वरीय अनुशासनो का पालन करें)॥१९॥

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥

अर्थ- जिस प्रकार सामान्य नेत्रो से आकाश मे स्थित सूर्यदेव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विद्वज्जन अपने ज्ञान चक्षुओ से विष्णुदेव(देवत्व के परमपद) के श्रेष्ठ स्थान को देखते हैं॥२०॥

तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम्॥२१॥

अर्थ- जागरूक विद्वान स्तोतागण विष्णूदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं,अर्थात जन सामान्य के लिये प्रकट करते है॥ २१॥