भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त करने के लिए और चारों दिशाओं से धन प्राप्ति के लिए अवश्य सुनें संपूर्ण रुद्राष्टाध्यायी दितीय पाठ।
Rudrashtadhyayi Path 2
रुद्राष्टाध्यायी द्वितीय पाठ
मङ्गलाचरणम्
वन्दे सिद्धिप्रदं देवं गणेशं प्रियपालकम् ।
विश्वगर्भं च विघ्नेशं अनादिं मङ्गलं विभूम् ॥
अथ ध्यानम् –
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारु चन्द्रवतंसम् ।
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशु मृगवरं भीतिहस्तं प्रसन्नम् ॥
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानम् ।
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥
Rudrashtadhyayi Path 2
द्वितीयोऽध्यायः
Rudrashtadhyayi Path 2 | द्वितीयोऽध्यायःश्लोक
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १॥
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्त्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २॥
एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३॥
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥ ४॥
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ ५॥
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ ६॥
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दार्ठ॰सि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ७॥
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ ८॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९॥
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १०॥
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या र्ठ॰ शूद्रो अजायत ॥ ११॥
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥ १२॥
नाभ्या आसीदन्तरिक्ष र्ठ॰ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँऽकल्पयन् ॥ १३॥
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४॥
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५॥
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६॥
अ॒द्भ्यः सम्भू॑तः पृथि॒व्यै रसाच्च । वि॒श्वक॑र्मणः॒ सम॑वर्त॒ताग्रे ।
तस्य॒ त्वष्टा॑ वि॒दध॑द्रू॒पमे॑ति । तमर्त्यस्य॒ देवत्वमाजा॑न॒मग्रे ॥ १७॥
वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हान्तम् । आ॒दि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः॒ पर॑स्तात् ।
तमे॒वं वि॒दित्वा मृत्युमत्येति । नान्यः पन्था॑ विद्य॒तेऽयनाय ॥ १८॥
प्र॒जाप॑तिश्चरति॒ गर्भे॑ अ॒न्तः । अ॒जाय॑मानो बहु॒धा विजा॑यते ।
तस्य॒ योनिम् परि॑पश्यन्ति॒ धीराः । तस्मिन् ह तस्थुः भुवनानि विश्वा ॥ १९॥
यो दे॒वेभ्य॒ आत॑पति । यो दे॒वानां पु॒रोहि॑तः ।
पूर्वो॒ यो दे॒वेभ्यो॑ जा॒तः । नमो॑ रु॒चाय॒ ब्राह्म॑ये ॥ २०॥
रुचं॑ ब्रा॒ह्मं ज॒नय॑न्तो दे॒वा अग्रे॒ तद॑ब्रुवन् ।
यस्त्वै॒वं ब्राह्म॒णो वि॒द्यात्तस्य॑ दे॒वा अस॒न् वशे ॥ २१॥
श्रीश्च॑ ते ल॒क्ष्मीश्च॒ पत्न्यौ ।
अ॒हो॒रा॒त्रे पा॒र्श्वे नक्ष॑त्राणि रू॒पमश्विनौ॒ व्यात्तम् ।
इ॒ष्णन्निषाणामुं म॑ इषाण । सर्व॑लोकं म इषाण ॥ २२॥
ॐ तच्छं॒ योरावृ॑णीमहे । गा॒तुं य॒ज्ञाय॑ । गा॒तुं यज्ञप॑तये । दैवीस्स्व॒स्तिर॑स्तु नः ।
स्व॒स्तिर्मानु॑षेभ्यः । ऊ॒र्ध्वं जि॑गातु भेष॒जम् । शन्नो॑ अस्तु द्वि॒पदे । शं चतु॑ष्पदे ।
ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ।
Rudrashtadhyayi Path 2
भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी द्वितीय पाठ
सभी लोकों में व्याप्त महानारायण सर्वात्मक होने से अनन्त सिरवाले, अनन्त नेत्र वाले और अनन्त चरण वाले हैं। वे पाँच तत्वों से बने इस गोलकरूप समस्त व्यष्टि और समष्टि ब्रह्माण्ड को सब ओर से व्याप्त कर नाभि से दस अंगुल परिमित देश का अतिक्रमण कर हृदय में अन्तर्यामी रूप में स्थित हैं। जो यह वर्तमान जगत है, जो अतीत जगत है और जो भविष्य में होने वाला जगत है, जो जगत के बीज अथवा अन्न के परिणामभूत वीर्य से नर, पशु, वृक्ष आदि के रूप में प्रकट होता है, वह सब कुछ अमृतत्व (मोक्ष) के स्वामी महानारायण पुरुष का ही विस्तार है।
इस महानारायण पुरुष की इतनी सब विभूतियाँ हैं अर्थात भूत, भविष्यत, वर्तमान में विद्यमान सब कुछ उसी की महिमा का एक अंश है। वह विराट पुरुष तो इस संसार से अतिशय अधिक है। इसीलिए यह सारा विराट जगत इसका चतुर्थांश है। इस परमात्मा का अवशिष्ट तीन पाद अपने अमृतमय (विनाशरहित) प्रकाशमान स्वरूप में स्थित है। यह महानारायण पुरुष अपने तीन पादों के साथ ब्रह्माण्ड से ऊपर उस दिव्य लोक में अपने सर्वोत्कृष्ट स्वरूप में निवास करता है और अपने एक चरण (चतुर्थांश) से इस संसार को व्याप्त करता है। अपने इसी चरण को माया में प्रविष्ट कराकर यह महानायण देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के नाना रूप धारण कर समस्त चराचर जगत में व्याप्त है।
उस महानारायण पुरुष से सृष्टि के प्रारंभ में विराट स्वरूप ब्रह्माण्ड देह तथा उस देह का अभिमानी पुरुष (हिरण्यगर्भ) प्रकट हुआ। उस विराट पुरुष ने उत्पन्न होने के साथ ही अपनी श्रेष्ठता स्थापित की। बाद में उसने भूमि का, तदनन्तर देव, मनुष्य आदि के पुरों (शरीरों) का निर्माण किया। उस सर्वात्मा महानारायण ने सर्वात्मा पुरुष का जिसमें यजन किया जाता है, ऎसे यज्ञ से पृषदाज्य (दही मिला घी) को सम्पादित किया। उस महानारायण ने उन वायु देवता वाले पशुओं तथा जो हरिण आदि वनवासी तथा अश्व आदि ग्रामवासी पशु थे उनको भी उत्पन्न किया।
उस सर्वहुत यज्ञपुरुष से ऋग्वेद और सामवेद उत्पन्न हुए, उसी से सर्वविध छन्द उत्पन्न हुए और यजुर्वेद भी उसी यज्ञपुरुष से उत्पन्न हुआ। उसी यज्ञपुरुष से अश्व उत्पन्न हुए और वे सब प्राणी उत्पन्न हुए जिनके ऊपर-नीचे दोनों तरफ दाँत हैं। उसी यज्ञपुरुष से गौएँ उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ पैदा हुईं। सृष्टि साधन योग्य या देवताओं और सनक आदि ऋषियों ने मानस याग की संपन्नता के लिए सृष्टि के पूर्व उत्पन्न उस यज्ञ साधनभूत विराट पुरुष का प्रोक्षण किया और उसी विराट पुरुष से ही इस यज्ञ को सम्पादित किया।
जब यज्ञसाधनभूत इस विराट पुरुष की महानारायण से प्रेरित महत्, अहंकार आदि की प्रक्रिया से उत्पत्ति हुई, तब उसके कितने प्रकारों की परिकल्पना की हई? उस विराट के मुँह, भुजा, जंघा और चरणों का क्या स्वरूप कहा गया है? ब्राह्मण उस यज्ञोत्पन्न विराट पुरुष का मुख स्थानीय होने के कारण उसके मुख से उत्पन्न हुआ,क्षत्रिय उसकी भुजाओं से उत्पन्न हुआ, वैश्य उसकी जाँघों से उत्पन्न हुआ तथा शूद्र उसके चरणों से उत्पन्न हुआ. विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, नेत्र से सूर्य उत्पन्न हुआ, कान से वायु और प्राण उत्पन्न हुए तथा मुख से अग्नि उत्पन्न हुई।
उस विराट पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ और सिर से स्वर्ग प्रकट हुआ। इसी तरह से चरणों से भूमि और कानों से दिशाओं की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार देवताओं ने उस विराट पुरुष के विभिन्न अवयवों से अन्य लोकों की कल्पना की। जब विद्वानों ने इस विराट पुरुष के देह के अवयवों को ही हवि बनाकर इस ज्ञानयज्ञ की रचना की, तब वसन्त-ऋतु घृत, ग्रीष्म-ऋतु समिधा और शरद-ऋतु हवि बनी थी. जब इस मानस याग का अनुष्ठान करते हुए देवताओं ने इस विराट पुरुष को ही पशु के रूप में भावित किया, उस समय गायत्री आदि सात छन्दों ने सात परिधियों का स्वरूप स्वीकार किया, बारह मास, पाँच ऋतु, तीन लोक और सूर्यदेव को मिलाकर इक्कीस अथवा गायत्री आदि सात, अतिजगती आदि सात और कृति आदि सात छन्दों को मिलाकर इक्कीस समिधाएँ बनीं।
सिद्ध संकल्प वाले देवताओं ने विराट पुरुष के अवयवों की हवि के रूप में कल्पना कर इस मानस-यज्ञ में यज्ञपुरुष महानारायण की आराधना की। बाद में ये ही महानारायण की उपासना के मुख्य उपादान बने। जिस स्वर्ग में पुरातन साध्य देवता रहते हैं, उस दु:ख से रहित लोक को ही महानारायण यज्ञपुरुष की उपासना करने वाले भक्तगण प्राप्त करते हैं।
उस महानारायण की उपासना के और भी प्रकार हैं – पृथिवी और जल के रस से अर्थात पाँच महाभूतों के रस से पुष्ट, सारे विश्व का निर्माण करने वाले, उस विराट स्वरूप से भी पहले जिसकी स्थिति थी, उस रस के रूप को धारण करने वाला वह महानारायण पुरुष पहले आदित्य के रूप में उदित होता है। प्रथम मनुष्य रूप उस पुरुष – मेधयाजी का यह आदित्य रूप में अवतरित ब्रह्म ही मुख्य आराध्य देवता बनता है।
आदित्यस्वरूप, अविद्या के लवलेश से भी रहित तथा ज्ञानस्वरूप परम पुरुष उस महानारायण को मैं जानता हूँ। कोई भी प्राणी उस आदित्यरूप महानारायण पुरुष को जान लेने के उपरान्त ही मृत्यु का अतिक्रमण कर अमृतत्व को प्राप्त करता है। परम आश्रय के निमित्त अर्थात अमृतत्व की प्राप्ति के लिए इससे भिन्न कोई दूसरा उपाय नहीं है। सर्वात्मा प्रजापति अन्तर्यामी रूप से गर्भ के मध्य में प्रकट होता है। जन्म न लेता हुआ भी वह देवता, तिर्यक, मनुष्य आदि योनियों में नाना रूपों में प्रकट होता है। ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मा के उत्पत्ति स्थान उस महानारायण पुरुष को सब ओर से देखते हैं, जिसमें सभी लोक स्थित हैं।
जो आदित्यस्वरूप प्रजापति सभी देवताओं को शक्ति प्रदान करने के लिए सदा प्रकाशित रहता है, जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं का बहुत पूर्वकाल से हित करता आया है, जो इन सबका पूज्य है, जो इन सब देवताओं से पहले प्रादुर्भूत हुआ है, उस ब्रह्मज्योतिस्वरूप परम पुरुष को हम प्रणाम करते हैं। इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं ने शोभन ब्रह्मज्योतिरूप आदित्य देव को प्रकट करते हुए सर्वप्रथम यह कहा कि हे आदित्य ! जो ब्राह्मण आपके इस अजर-अमर स्वरूप को जानता है, समस्त देवगण उस उपासक के वश में रहते हैं।
हे महानारायण आदित्य ! श्री और लक्ष्मी आपकी पत्नियाँ हैं, ब्रह्मा के दिन-रात पार्श्वस्वरुप हैं, आकाश में स्थित नक्षत्र आपके स्वरूप हैं। द्यावापृथिवी आपके विकसित मुख हैं। प्रयत्नपूर्वक आप सदा मेरे कल्याण की इच्छा करें। मुझे आप अपना कल्याणमय लोक प्राप्त करावें और सारे योगैश्वर्य मुझे प्रदान करें।