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Rudrashtadhyayi Path 4 | शुक्लयजुर्वेद रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थ पाठ

Rudrashtadhyayi Path 4 | शुक्लयजुर्वेद रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थ पाठ
चमत्कारी रुद्राष्टाध्यायी हिन्दी चतुर्थ पाठ।

समस्त दुःख, कष्ट, रोग, दरिद्रता, आभाव, पीड़ा, दूर कर व जीवन के सभी सुखो की प्राप्ति लिए अवश्य सुनें, शुक्लयजुर्वेद रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थ पाठ(रुद्री पाठ)।

Rudrashtadhyayi Path 4
रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थ पाठ

मङ्गलाचरणम्

वन्दे सिद्धिप्रदं देवं गणेशं प्रियपालकम् ।
विश्वगर्भं च विघ्नेशं अनादिं मङ्गलं विभूम् ॥

अथ ध्यानम् –

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारु चन्द्रवतंसम् ।
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशु मृगवरं भीतिहस्तं प्रसन्नम् ॥
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानम् ।
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥

Rudrashtadhyayi Path 4
चतुर्थोऽध्यायः

Rudrashtadhyayi Path 4 | चतुर्थोऽध्यायः श्लोक

विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविहृतम् ॥

वातजूतो योऽभिरक्षतित्मनाप्रजाः पुपोष पुरुधा विराजति ॥ १॥

उदुत्त्यं जातवेदसं देवमुदवहन्ति हन्ति केतवो दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २॥

येन पावकचक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३॥

दैव्यावद्ध्वर्यू आगतं रथेन सूर्यत्वचा ॥

मद्धा यज्ञं समञ्जाथे ॥ तं प्रत्क्नथा अयं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४॥

तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदम् ॥

प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनुयासु वर्धसे ॥ ५॥

अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भाज्ज्योतिर्जरायुः रजसो विमाने ।

इममपां सङ्गमे सूर्यस्य॒ शिशुं न विप्राः मतिभिः रिहन्ति ॥ ६॥

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य॒ वरुणस्याग्नेः ॥

आप्राद्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य॑ आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७॥

आन इडाभिः विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु ॥

अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा ॥ ८॥

यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभिसूर्य ॥ सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९॥

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य । विश्वमाभासि रोचनम् ॥ १०॥

तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोः वितत सञ्जभार ॥

यदेदयुक्तहरितः सधस्थादाद्रात्रीवासस्तनुते सिमस्मै ॥ ११॥

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्योरूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।

अनन्तमन्यद्रुशदस्य॒ पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सम्भरन्ति ॥ १२॥

बण्महानसि सूर्य बडादित्य महानसि ॥

महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महानसि ॥ १३॥

बट्सूर्य्य श्रवसा महानसि सत्रादेव महानसि ।

मन्हा देवानामसुर्यः पुरोहितो विभुज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४॥

श्रायन्त इव॒ सूर्य विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ॥

वसूनिजाते जनमाने ओजसा प्रतिभागं न दीधिम ॥ १५॥

अद्य देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्

तन्नो मित्रो वरुणो मां महन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६॥

आकृष्णेन रजसाऽऽवर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च ॥

हिरण्ययेन सविता रथेन देव आयाति भुवनानि पश्यन् ॥ १७॥

Rudrashtadhyayi Path 4 Hindi Meaning 
भावार्थः शुक्लयजुर्वेद रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थ पाठ

हे सूर्यदेव ! यजमान में अखण्डित आयु स्थापित करते हुए आप इस अत्यन्त स्वादु सोमरुप हवि का पान कीजिए। जो सूर्यदेव वायु से प्रेरित आत्मा द्वारा प्रजा का पालन और पोषण करते हैं, वे अनेक रूपों में आलोकित होते हैं। सूर्य रश्मियाँ सम्पूर्ण जगत को आलोक प्रदान करने के लिए जातवेदस् (अग्नितेजोमय) सूर्यदेव को ऊपर की ओर ले जाती रहती हैं। सबको शुद्ध करने वाले हे वरुणदेव ! आप जिस अनुग्रह दृष्टि से उस सुपर्ण स्वरूप को देखते हैं, उसी चक्षु से आप हम ऋत्विजों को भी देखिए।

हे दिव्य अश्विनी कुमारो ! आप दोनों सूर्य के समान कान्तिमान रथ से हमारे यहाँ आइए और पुरोडाश, दधि आदि से यज्ञ को सींचकर उसे बहुत हवि वाला बनाइए। हे इन्द्र ! आप जिन यज्ञ क्रियाओं में पुन:-पुन: सोमरस का पान कर वृद्धि को प्राप्त होते हैं उन उत्कृष्ट विस्तारवान सर्वश्रेष्ठ यज्ञों में कुश आसन के सेवी, स्वर्गवेत्ता, शत्रुओं को कम्पित करने वाले तथा जेतव्य वस्तुओं को शीघ्र जीतने वाले आप बलपूर्वक यजमान को यज्ञफल प्रदान करते हैं. जैसे पुरातन भृगु आदि ऋषियों, पूर्व पितर आदि, विश्व के सभी प्राणियों तथा वर्तमान यजमानों ने आपकी स्तुति की है, उसी प्रकार हम आपकी स्तुति करते हैं।

विद्युत के लक्षणों वाली ज्योति से परिवृत यह कान्तिमान चन्द्र ग्रीष्मान्त के समय जल निर्माण के निमित्त सूर्य अथवा द्युलोक के गर्भ में स्थित रहने वाले जल को प्रेरित करता है। बुद्धिमान विप्रगण सूर्य से जल की संगति के समय मधुर वाणियों से इस सोम की उसी प्रकार स्तुति करते हैं, जैसे लोग मधुर वचनों से अपने शिशु को प्रसन्न करते हैं। यह कैसा आश्चर्य है कि देवताओं के जीवनाधार, तेजसमूह तथा मित्र, वरुण और अग्नि के नेत्र स्वरूप सूर्य उदय को प्राप्त हुए हैं ! स्थावर-जंगममय जगत के आत्मास्वरूप इन सूर्यदेव ने पृथिवी, द्युलोक और अन्तरिक्ष को अपने तेज से पूर्णत: व्याप्त कर रखा है।

सब जीवों के हितकारी, अन्तर्यामी सूर्यदेव हमारी सुन्दर आहुतियों के कारण प्रशंसा योग्य यज्ञशाला में प्रकट हों। हे जरा रहित देवताओं ! आगमन-काल पर जिस प्रकार आप सब तृप्त होते हैं, उसी प्रकार इस सारे जगत को भी प्रज्ञा से तृप्त करें। हे अन्धकार के नाशक ऎश्वर्ययुक्त सूर्यदेव ! आज जहाँ कहीं भी आप उदित होते हैं, वह सब स्थान आपके ही वश में हो जाता है। हे सूर्यदेव ! आप संसार सागर में नौका के समान हैं, सबके दर्शनयोग्य हैं तथा सबको तेज प्रदान करने वाले हैं। प्रकाशित होने वाले सारे संसार को आप ही प्रकाशित करते हैं अर्थात अग्नि, विद्युत, नक्षत्र, चन्द्रमा, ग्रह, तारों आदि में आपकी ही ज्योति प्रकाशित हो रही है।

सूर्य का यह जो देवत्व है और यह जो ऎश्वर्य है वह विराट स्वरूप देह के मध्य में सब ओर से विस्तारित ग्रहमण्डल को अपनी आकर्षण शक्ति से नियमित रखता है। जब ये अपनी हरित वर्ण की किरणों को आकाशमण्डल में अपनी आत्मा से युक्त करते हैं, तदनन्तर ही रात्रि अपने अन्धकाररूपी वस्त्र से सबको आच्छादित कर देती है। सूर्य स्वर्गलोक के उत्संग में मित्रदेव और वरुणदेव का रूप धारण करते हैं तथा उससे मनुष्यों को भली-भाँति देखते हैं अर्थात मित्रदेव के रूप में पुण्यात्माओं को देखकर उन पर अनुग्रह करते हैं और वरुणरूप में दुष्टजनों को देखकर उनका निग्रह करते हैं। इन सूर्य का अन्य स्वरुप अनन्त अर्थात देश-काल के परिच्छेद से रहित, मायोपाधि का नाशक ब्रह्म ही है।

हे जगत के प्रेरक सत्यस्वरूप सूर्यदेव ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। हे आदित्य ! आप ही महान हैं, स्तोतागण आपकी महान और अविनश्वर महिमा का गान करते हैं। हे दीप्यमान सत्यस्वरूप ! आप महान हैं। हे सत्यस्वरूप सूर्य ! आप धन (अथवा यश) – से महान हैं. हे सत्यस्वरुप देव ! आप महान हैं। आप अपनी महिमा के कारण देवताओं के मध्य असुरविनाशक (अथवा समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाले) हैं। आप सभी कार्यों में अर्घ्य दानादि के रूप में प्रथम पूज्य हैं। आपकी ज्योति सर्वव्यापी तथा अनुल्लंघनीय है।

सूर्य की उपासना करने वाले इन्द्र आदि की उपासना से प्राप्त होने वाले धन-धान्य, ऎश्वर्य आदि भोगों को स्वत: प्राप्त कर लेते हैं, अत: हमको चाहिए कि प्रकाश की किरणों के साथ जब सूर्य भगवान उदित होते हैं, तब हम उनके निमित्त यज्ञ में देवभाग अर्पित करें। हे सूर्यरश्निरूप देवताओं ! अब आज सूर्य का उदय होने पर आप लोग हमें पाप और अपयश से मुक्त करें।

मित्र, वरुण, अदिति, समुद्र, पृथ्वी और स्वर्ग – ये सब हमारे वचन को अंगीकार करें। सबको प्रेरणा प्रदान करने वाले सूर्यदेव सुवर्णमय रथ में आरुढ़ होकर कृष्णवर्ण रात्रि लक्षण वाले अन्तरिक्ष मार्ग में पुनरावर्तन-क्रम से भ्रमण करते हुए देवता-मनुष्यादि को अपने-अपने व्यापारों में व्यवस्थित करते हुए तथा सम्पूर्ण भुवनों को देखते हुए विचरण करते हैं।

Rudrashtadhyayi Path 4
इति रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थोऽध्यायः

Rudrashtadhyayi Path 4 Hindi

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