समस्त ग्रह दोष, पितृ दोष, तन्त्र दोष, भय, कष्ट, पीड़ा, दुःख, दरिद्र, अभाव नष्ट करने के लिए अवश्य सुनें रुद्राष्टाध्यायी सातवाँ पाठ (रुद्री पाठ)।
Rudrashtadhyayi Path 7
रुद्राष्टाध्यायी सातवाँ पाठ
अथ सप्तमोऽध्यायः
उग्नश्च भीमश्च ध्वान्तश्च धुनिश्च । सासहवांश्चाभियुग्वा च विक्षिपः स्वाहा ॥ १॥
अग्निं हृदयेनाशनिं हृदयाग्रेण पशुपतिं कृत्स्नहृदयेन भवं यक्ना ॥
शर्वं मतस्नाभ्यामीशानं मन्युना महादेवमन्तःपर्शव्येनोग्रं देवं वनिष्ठना
वसिष्ठहनुः शिङ्गीनि कोश्याभ्याम् ॥ २॥
उग्रँल्लोहितेन मित्रं सौव्रत्येन रुद्रं दौव्रत्येन इन्द्रं प्रक्रीडेन मरुतो बलेन साध्यान्प्रमुदा ।
भवस्य कण्ठ्यं रुद्रस्यान्तः पार्श्व्यं महादेवस्य यकृच्छर्वस्य वनिष्ठुः पशुपतेः पुरीतत् ॥ ३॥
लोमभ्यः स्वाहा लोमभ्यः स्वाहा त्वचे स्वाहा त्वचे स्वाहा लोहिताय स्वाहा लोहिताय स्वाहा
मेदोभ्यः स्वाहा मेदोभ्यः स्वाहा मांसेभ्यः स्वाहा मांसेभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा
अस्थभ्यः स्वाहा अस्थभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा ॥
रेतसे स्वाहा पायवे स्वाहा ॥ ४॥
आयासाय स्वाहा प्रायासाय स्वाहा संयासाय स्वाहा वियासाय स्वाहोद्यासाय स्वाहा ॥
शुचे स्वाहा शोचते स्वाहा शोचमानाय स्वाहा शोकाय स्वाहा ॥ ५॥
तपसे स्वाहा तप्यते स्वाहा तप्यमानाय स्वाहा तप्ताय स्वाहा घाय स्वाहा ॥
निष्कृत्यै स्वाहा प्रायश्चित्यै स्वाहा भेषजाय स्वाहा ॥ ६॥
यमाय स्वाहा अन्तकाय स्वाहा मृत्यवे स्वाहा ॥
ब्रह्मणे स्वाहा ब्रह्महत्यायै स्वाहा विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा ॥ ७॥
Rudrashtadhyayi Path 7 Hindi Meaning
भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी सातवाँ अध्याय
उग्र (उत्कट क्रोध स्वभाव वाले), भीम (भयानक), ध्वान्त (तीव्र ध्वनि करने वाले), धुनि (शत्रुओं को कम्पित करने वाले), सासह्वान (शत्रुओं को तिरस्कृत करने में समर्थ), अभियुग्वा (हमारे सम्मुख योग प्राप्त करने वाले) और विक्षिप (वृक्ष-शाखादि का क्षेपण करने वाले) नाम वाले जो सात मरुत् हैं, उन्हें मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ। मैं अग्नि को हृदय के द्वारा, अशनिदेव को हृदयाग्र से, पशुपति को सारे हृदय से, भव को यकृत से, शर्व को मतस्ना नामक हृदय स्थल से, ईशान देवता को क्रोध से, महादेव को पसलियों के अन्तर्भाग से, उग्र देवता को बड़ी आँत से और शिंगी नामक देवताओं को हृदयकोष स्थित पिण्डों से प्रसन्न करता हूँ।
उग्र देवता को रुधिर से, मित्र देवता को शुभ कर्मों के अनुष्ठान से, रुद्र देवता को अशोभन कर्मों से, इन्द्र देवता को प्रकृष्ट क्रीडाओं से, मरुत् देवताओं को बल से, साध्य देवताओं को हर्ष से, भव देवताओं को कण्ठ भाग से, रुद्र देवता को पसलियों के अन्तर्भाग से, महादेव को यकृत से, शर्व देवता को बड़ी आँत से और पशुपति देवता को पुरीतत् (हृदयाच्छाददक भाग विशेष) से संतुष्ट करता हूँ।
समष्टि लोमों के लिए यह श्रेष्ठ आहुति देता हूँ, व्यष्टि लोमों के लिए यह श्रेष्ठ आहुति देता हूँ, समष्टि त्वचा के लिए, व्यष्टि त्वचा के लिए, समष्टि रुधिर के लिए, व्यष्टि रुधिर के लिए, समष्टि मेदा के लिए, व्यष्टि मेदा के लिए, समष्टि मांस के लिए, व्यष्टि मांस के लिए, समष्टि नसों के लिए, व्यष्टि नसों के लिए, समष्टि अस्थियों के लिए, व्यष्टि अस्थियों के लिए, समष्टि मज्जा के लिए, व्यष्टि मज्जा के लिए, वीर्य के लिए और पायु इन्द्रिय के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।
आयास देवता के लिए, प्रायास देवता के लिए, संयास देवता के लिए, वियास देवता के लिए और उद्यास देवता के लिए, शुचि के लिए, शोचत् के लिए, शोचमान के लिए और शोक के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति प्रदान करता हूँ। तप के लिए, तपकर्ता के लिए, तप्यमान के लिए, तप्त के लिए, घर्म के लिए, निष्कृति के लिए, प्रायश्चित के लिए और औषध के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ। यम के लिए, अन्तक के लिए, मृत्यु के लिए, ब्रह्मा के लिए, ब्रह्महत्या के लिए, विश्वेदेवों के लिए, द्युलोक के लिए तथा पृथ्वीलोक के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।
इति रुद्राष्टाध्यायी सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ।।