समस्त तन्त्र दोष, दरिद्र दोष, ग़रीबी, बीमारी, कोर्ट केस अभाव नष्ट करने के लिए अवश्य सुनें रुद्राष्टाध्यायी आठवाँ पाठ (रुद्री पाठ)।
Rudrashtadhyayi Path 8
रुद्राष्टाध्यायी आठवाँ पाठ
मङ्गलाचरणम्
वन्दे सिद्धिप्रदं देवं गणेशं प्रियपालकम् ।
विश्वगर्भं च विघ्नेशं अनादिं मङ्गलं विभूम् ॥
अथ ध्यानम् –
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारु चन्द्रवतंसम् ।
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशु मृगवरं भीतिहस्तं प्रसन्नम् ॥
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानम् ।
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥
Rudrashtadhyayi Path 8
अष्टमोऽध्यायः
Rudrashtadhyayi Path 8 | अष्टमोऽध्यायः श्लोक
वाज॑श्च मे प्रसवश्च मे प्रय॑तिश्च मे प्रसितिश्च मे धीतिश्च मे क्रतुश्च मे स्वरश्च मे
श्लोकश्च मे श्रवश्च मे श्रुतिश्च मे ज्योतिश्च मे स्वश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १॥
प्राणश्च मेऽपानश्च मे व्यानश्च मेऽसुश्च मे चित्तञ्च मेऽधीतं च मे वाक्च मे मनश्च मे
चक्षुश्च मे श्रोत्रं च मे दक्षश्च मे बलं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २॥
ओजश्च मे सहश्च मात्मा च मे तनूश्च मे शर्म च मे वर्म च मेऽङ्गानि च
मेऽस्थीनि च मे परूंषि च मे शरीराणि च म आयुश्च मे जरा च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ३॥
ज्यैष्ठ्ंय च माधिपत्यं च मे मन्युश्च मे भाम॑श्च मे अम्भश्च जेमा च मे
महिमा च मे वरिमा च मे प्रथिमा च मे वर्षिमा च मे द्राधिमा च मे
वृद्धं च मे वृद्धिश्च मे युज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ४॥
सत्यं च मे श्रद्धा च मे जगच्च मे धनं च मे विश्वं च मे महश्च मे क्रीडा च मे
मोद॑श्च मे जातं च मे जनिष्याणं च मे सूक्तं च मे सुकृतं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ५॥
ऋतं च मेऽमृतं च मे युक्ष्मं च मे नामयच्च मे जीवातुश्च मे दीर्घायुत्वं च मे
ऽनमित्रं च मेऽभयं च मे सुखं च मे शय॑नं च मे सूषाश्च मे सुदिनं च मे
यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ६॥
यन्ता च मे धर्ता च मे क्षेमश्च मे धृतिश्च मे विश्वं च मे महश्च मे सँविच्च मे
ज्ञात्रं च मे प्रसूश्च मे प्रसूश्च मे सीर च मे लय॑श्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ७॥
शं च मे मयश्च मे प्रियं च मेऽनुकामश्च मे कामश्च मे सौमनसश्च मे
भगश्च मे द्रविणं च मे भद्रं च मे श्रेयश्च मे वसीयश्च मे यशश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ८॥
ऊर्क्च मे सूनृता च मे पयश्च मे रसश्च मे घृतं च मे मधु च मे सग्धिश्च मे
सपीतिश्च मे कृषिश्च मे वृष्टिश्च मे जैत्र च मे औद्भिद्यं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ९॥
रयिश्च मे रायश्च मे पुष्टं च मे पुष्टिश्च मे विभु च मे प्रभु च मे पूर्णं च मे
पूर्णतरं च मे कुयवं च मेऽक्षितं च मेऽन्नं च मे क्षुच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १०॥
वित्तं च मे वेद्यं च मे भूतं च मे भविष्यच्च मे सुगं च मे सुपथ्य च मे ऋद्धं च मे
ऋद्धिश्च मे क्लृप्तं च मे क्लृप्तिश्च मे मतिश्च मे सुमतिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ११॥
व्रीहयश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मे
अणवश्च मे श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमाश्च मे मसूराश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १२॥
अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च मे पर्वताश्च मे सिकताश्च मे वनस्पतयश्च मे
हिरण्यं च मेऽयश्च मे श्यामं च मे लोहं च मे सीसं च मे त्रपु च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १३॥
अग्निश्च मे आपश्च मे वीरुधश्च मे ओषधयश्च मे कृष्टपच्याश्च मेऽकृष्टपुच्याश्च मे
ग्राम्याश्च मे पशवः आरण्याश्च मे वित्तं च मे वित्तिश्च मे भूतं च मे भूतिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १४॥
वसु च मे वसतिश्च मे कर्म च मे शक्तिश्च मेऽर्थश्च मे एमश्च मे
इत्या च मे गतिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १५॥
अग्निश्च मे इन्द्रश्च मे सोम॑श्च मे इन्द्रश्च मे सविता च मे इन्द्रश्च मे सरस्वती च मे
इन्द्रश्च मे पूषा च मे इन्द्रश्च मे बृहस्पतिश्च मे इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १६॥
मित्रश्च मे इन्द्रश्च मे वरुणश्च मे इन्द्रश्च मे धाता च मे इन्द्रश्च मे त्वष्टा च मे
इन्द्रश्च मे मरुतश्च मे इन्द्रश्च मे विश्वेदेवाश्च च मे इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १७॥
पृथिवी च मे इन्द्रश्च मे अन्तरिक्षं च मे इन्द्रश्च मे द्यौश्च मे इन्द्रश्च मे समाश्च मे
इन्द्रश्च मे नक्षत्राणि च मे इन्द्रश्च मे दिशश्च मे इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १८॥
अंशुश्च मे रश्मिश्च मेऽदाभ्यश्च मेऽधिपतिश्च मेऽउपांशुश्च मेऽन्तर्यामश्च मे
ऐन्द्रवायवश्च मे मैत्रावरुणश्च मे आश्विनश्च मे प्रतिप्रस्थानश्च मे शुक्रश्च मे
मन्थी च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १९॥
आग्रयणश्च मे वैश्वदेवश्च मे ध्रुवश्च मे वैश्वानरश्च मे
ऐन्द्राग्नश्च मे मुहावैश्वदेवश्च मे मरुत्वतीयाश्च मे
निष्केवल्यश्च मे सावित्रश्च मे सारस्वतश्च मे पात्क्नीवतश्च मे
हारियोजनश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २०॥
स्रुचश्च मे चमसाश्च मे वायव्यानि च मे द्रोणकलशश्च मे ग्रावाणश्च
मेऽधिषवणे च मे पतभृच्च मे आधवनीय॑श्च मे वेदिश्च मे बर्हिश्च मेऽवभृथश्च मे
स्वगाकारश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २१॥
अग्निश्च मे घर्मश्च मेऽर्कश्च मे सूर्यश्च मे प्राणश्च मेऽश्वमेधश्च मे पृथिवी च
मेदितिश्च मेऽदितिश्च मे द्यौश्च मेऽङ्गुलय शक्वरयो दिशश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २२॥
व्रतं च मे ऋतवश्च मे तपश्च मे संवत्सरश्च मेऽहोरात्रे ऊर्वष्ठीवे
बृहद्रथन्तरे च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २३॥
एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे सप्त च मे
नव च मे नव च मे एकादश च मे एकादश च मे त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे
पञ्चदश च मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे नवदश च मे नवदश च म
एकविंशतिश्च मे एकविंशतिश्च मे त्रयोविंशतिश्च मे त्रयोविंशतिश्च मे पञ्चविंशति च मे
पञ्चविंशतिश्च मे सप्तविंशतिश्च मे सप्तविंशतिश्च मे नवविंशतिश्च मे नवविंशतिश्च मे
एकत्रिंशच्च म एकत्रिंशच्च मे त्रयस्त्रिंशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २४॥
Rudrashtadhyayi Path 8 Hindi Meaning
भावार्थः शुक्लयजुर्वेद रुद्राष्टाध्यायी आठवाँ पाठ
अन्न, अन्नदान की अनुज्ञा, शुद्धि, अन्न-भक्षण की उत्कण्ठा, श्रेष्ठ संकल्प, सुन्दर शब्द, स्तुति-सामर्थ्य, वेदमन्त्र अथवा श्रवणशक्ति, ब्राह्मण, प्रकाश और स्वर्ग – ये सब मेरे द्वारा किए गए यज्ञ के फल के रुप में मुझे प्राप्त हों।
प्राणवायु, अपानवायु, सारे शरीर में विचरण करने वाला व्यानवायु, मनुष्यों को प्रवृत्त करने वाला वायु, मानससंकल्प, बाह्यविषयसंबंधी ज्ञान, वाणी, शुद्ध मन, पवित्र दृष्टि, सुनने की सामर्थ्य, ज्ञानेन्द्रियों का कौशल तथा कर्मेन्द्रियों में बल – ये सब मेरे द्वारा किए गए यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
बल का कारणभूत ओज, देहबल, आत्मज्ञान, सुन्दर शरीर, सुख, कवच, हृष्ट-पुष्ट अंग, सुदृढ़ हड्डियाँ, सुदृढ़ अंगुलियाँ, नीरोग शरीर, जीवन और वृद्धावस्थापर्यन्त आयु – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
प्रशस्तता, प्रभुता, दोषों पर कोप, अपराध पर क्रोध, अपरिमेयता, शीतल-मधुर जल, जीतने की शक्ति, प्रतिष्ठा, संतान की वृद्धि, गृह-क्षेत्र आदि का विस्तार, दीर्घ जीवन, अविच्छिन्न वंश परंपरा, धन-धान्य की वृद्धि और विद्या आदि गुणों का उत्कर्ष – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
यथार्थ भाषण, परलोक पर विश्वास, गौ आदि पशु, सुवर्ण आदि धन, स्थावर पदार्थ, कीर्ति, क्रीड़ा, क्रीड़ादर्शन – जनित आनन्द, पुत्र से उत्पन्न संतान, होने वाली संतान, शुभदायक ऋचाओं का समूह और ऋचाओं के पाठ से शुभ फल – ये सब मेरे द्वार किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
यज्ञ आदि कर्म और उनका स्वर्ग आदि फल, धातुक्षय आदि रोगों का अभाव तथा सामान्य व्याधियों का न रहना, आयु बढ़ाने वाले साधन, दीर्घायु, शत्रुओं का अभाव, निर्भयता, सुख, सुसज्जित शय्या, संध्या-वंदन से युक्त प्रभात और यज्ञ-दान-अध्ययनआदि से युक्त दिन – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
अश्व आदि का नियन्तृत्व और प्रजा पालन की क्षमता, वर्तमान धन की रक्षणशक्ति, आपत्ति में चित्त की स्थिरता, सबकी अनुकूलता, पूजा-सत्कार, वेदशास्त्र आदि का ज्ञान, विज्ञान-सामर्थ्य, पुत्र आदि को प्रेरित करने की क्षमता, पुत्रोत्पत्ति आदि के लिए सामर्थ्य, हल आदि के द्वारा कृषि से अन्न-उत्पादन और कृषि में अनावृष्टि आदि विघ्नों का विनाश – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
इस लोक का सुख, परलोक का सुख, प्रीति-उत्पादक वस्तु, सहज यत्नसाध्य पदार्थ, विषयभोगजनित सुख, मन को स्वस्थ करने वाले बन्धु-बान्धव, सौभाग्य, धन, इस लोक का और परलोक का कल्याण, धन से भरा निवासयोग्य गृह तथा यश – ये सब मेरे द्वारा किये गये इस यज्ञ के फल के रुप में मुझे प्राप्त हों। अन्न, सत्य और प्रिय वाणी, दूध, दूध का सार, घी, शहद, बान्धवों के साथ खान-पान, धान्य की सिद्धि, अन्न उत्पन्न होने के कारण अनुकूल वर्षा, विजय की शक्ति तथा आम आदि वृक्षों की उत्पत्ति – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
सुवर्ण, मौक्तिक आदि मणियाँ, धन की प्रचुरता, शरीर की पुष्टि, व्यापकता की शक्ति, ऎश्वर्य, धन-पुत्र आदि की बहुलता, हाथी-घोड़ा आदि की अधिकता, कुत्सित धान्य, अक्षय अन्न, भात आदि सिद्धान्न तथा भोजन पचाने की शक्ति – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
पूर्वप्राप्त धन, प्राप्त होने वाला धन, पूर्वप्राप्त क्षेत्र आदि, भविष्य में प्राप्त होने वाले क्षेत्र आदि, सुगम्य देश, परम पथ्य पदार्थ, समृद्ध यज्ञ-फल, यज्ञ आदि की समृद्धि, कार्यसाधक अपरिमित धन, कार्य साधन की शक्ति, पदार्थ मात्र का निश्चय तथा दुर्घट कार्यों का निर्णय करने की बुद्धि – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
उत्कृष्ट कोटि के धान्य, यव, उड़द, तिल, मूँग, चना, प्रियंगु, चीनक धान्य, सावाँ, नीवार, गेहूँ और मसूर – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों. सुन्दर पाषाण और श्रेष्ठ मूर्त्तिका, गोवर्धन आदि छोटे पर्वत, हिमालय आदि विशाल पर्वत, रेतीली भूमि, वनस्पतियाँ, सुवर्ण, लोहा, ताँबा, काँसा, सीसा तथा राँगा – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
पृथ्वी पर अग्नि की तथा अन्तरिक्ष में जल की अनुकूलता, छोटे-छोटे तृण, पकते ही सूखने वाली औषधियाँ, जोतने-बोने से उत्पन्न होने वाले तथा बिना जोते-बोए स्वयं उत्पन्न होने वाले अन्न, गाय-भैंस आदि ग्राम्य पशु तथा हाथी-सिंह आदि जंगली पशु, पूर्वलब्ध तथा भविष्य में प्राप्त होने वाला धन, पुत्र आदि तथा ऎश्वर्य – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
गो आदि धन, रहने के लिए सुन्दर घर, अग्निहोत्र आदि कर्म तथा उनके अनुष्ठान की सामर्थ्य, इच्छित पदार्थ, प्राप्तियोग्य पदार्थ, इष्टप्राप्ति का उपाय एवं इष्टप्राप्ति – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों। अग्नि और इन्द्र, सोम तथा इन्द्र, सविता और इन्द्र, सरस्वती तथा इन्द्र, पूषा तथा इन्द्र, बृहस्पति और इन्द्र – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों। मित्रदेव एवं इन्द्र, वरुण तथा इन्द्र, धाता और इन्द्र, त्वष्टा तथा इन्द्र, मरुद्गण और इन्द्र, विश्वेदेव और इन्द्र – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रुप में मुझे प्राप्त हों।
पृथ्वी और इन्द्र, अन्तरिक्ष एवं इन्द्र, स्वर्ग तथा इन्द्र, वर्ष की अधिष्ठात्री देवता तथा इन्द्र, नक्षत्र और इन्द्र, दिशाएँ तथा इन्द्र – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
अंशु, रश्मि, अदाभ्य, निग्राह्य, उपांशु, अन्तर्याम, ऎन्द्रवायव, मैत्रावरुण, आश्विन, प्रतिप्रस्थान, शुक्र और मन्थी – ये सभी मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
आग्रयण, वैश्वदेव, ध्रुव, वैश्वानर, ऎन्द्राग्न, महावैश्वदेव, मरुत्त्वतीय, निष्केवल्य, सावित्र, सारस्वत, पात्नीवत एवं हारियोजन – ये यज्ञग्रह मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
स्रुक्, चमस, वायव्य, द्रोणकलश, ग्रावा, काष्ठफलक, पूतभृत्, आधवनीय, वेदी, कुशा, अवभृथ और शम्युवाक – ये सब यज्ञपात्र मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
अग्निष्टोम, प्रवर्ग्य, पुरोडाश, सूर्यसंबंधी चरु, प्राण, अश्वमेधयज्ञ, पृथ्वी, अदिति, दिति, द्युलोक, विराट् पुरुष के अवयव, सब प्रकार की शक्तियाँ और पूर्व दिशाएँ – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
व्रत, वसन्त आदि ऋतुएँ, कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि तप, प्रभव आदि संवत्सर, दिन-रात, जंघा तथा जानु – ये शरीरावयव और बृहद् तथा रथन्तर साम – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
एक और तीन, तीन तथा पाँच, पाँच और सात, सात तथा नौ, नौ तथा ग्यारह, ग्यारह और तेरह, तेरह और पंद्रह, पंद्रह तथा सत्रह, सत्रह तथा उन्नीस, उन्नीस और इक्कीस, इक्कीस तथा तीईस, तेईस और पच्चीस, पच्चीस तथा सत्ताईस, सत्ताईस तथा उनतीस, उनतीस और इकतीस, इकतीस तथा तैंतीस – इन सब संख्याओं से कहे जाने वाले सकल श्रेष्ठ पदार्थ मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
चार तथा आठ, आठ और बारह, बारह तथा सोलह, सोलह और बीस, बीस और चौबीस, चौबीस तथा अट्ठाईस, अठ्ठाईस और बत्तीस, बत्तीस तथा छत्तीस, छत्तीस और चालीस, चालीस तथा चवालीस, चवालीस तथा अड़तालीस – इन सब संख्याओं से कहे जाने वाले सकल श्रेष्ठ पदार्थ मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
डेढ़ वर्ष का बछड़ा, डेढ़ वर्ष की बछिया, दो वर्ष का बछड़ा, दो वर्ष की बछिया, ढ़ाई वर्ष का बैल, ढ़ाई वर्ष की गाय, तीन वर्ष का बैल तथा तीन वर्ष की गाय, साढ़े तीन वर्ष का बैल और साढ़े तीन वर्ष की गाय – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।
चार वर्ष का बैल, चार वर्ष की गाय, सेचन में समर्थ वृषभ, वन्ध्या गाय, तरुण वृषभ, गर्भघातिनी गाय, भार वहन करने में समर्थ बैल तथा नवप्रसूता गाय – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों। प्रचुर अन्न की उत्पत्ति करने वाले अन्नरूप चैत्र मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, वैशाख मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, जल-क्रीडा में सुखदायक ज्येष्ठ मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, यागरूप आषाढ़ मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, चातुर्मास्य में यात्रा का निषेध करने वाले श्रावण मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, दिन के स्वामी सूर्यरूप भाद्रपद मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, तुषार आदि से मोहकारक दिवस वाले आश्विन (क्वार) – मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, स्नान आदि से प्राणियों का पाप नाश करने के कारण मोहनिवर्तक तथा दिनमान के थोड़ा घटने विनाशशील कार्तिक मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, सम्पूर्ण सृष्टि के विनाश के बाद भी विद्यमान रहने वाले अविनाशी विष्णुरूप मार्गशीर्ष (अगहन) मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, अन्त में स्थित रहने वाले तथा प्राणियों के पोषक पौष मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, सम्पूर्ण लोकों के पालकरूप माघ मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है और सभी प्राणियों के लिए सर्वाधिक पालक फाल्गुन मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है।
बारहों मासों के अधिष्ठातृदेव प्रजापति के लिए यह श्रेष्ठ आहुति दी जाती है। हे प्रजापतिस्वरुप अग्निदेव! यह यज्ञस्थान आपका राज्य है, अग्निष्टोम आदि कर्मों में सबके नियन्ता आप मित्ररूप इस यजमान के प्रेरक हैं। अधिक अन्न आदि की प्राप्ति के लिए मैं आपका अभिषेक करता हूँ, वर्षा के लिए मैं आपका अभिषेक करता हूँ और प्रजाओं पर प्रभुता-प्राप्ति के लिए मैं आपका अभिषेक करता हूँ।
यज्ञ के फल से मेरी आयु में वृद्धि हो, यज्ञ के फलस्वरुप मेरे प्राण बलिष्ठ हों, यज्ञ के फलस्वरुप नेत्रों की ज्योति बढ़े, यज्ञ के फल से श्रवणशक्ति उत्कृष्टता को प्राप्त हो, यज्ञ के फल से वाणी में श्रेष्ठता रहे, यज्ञ के फलस्वरुप मन सदा स्वच्छ रहे, यज्ञ के फलस्वरुप आत्मा बलवान हो, यज्ञ के फलस्वरुप सभी वेद मेरे ऊपर प्रसन्न रहें, इस यज्ञ के फलस्वरुप मुझे परमात्मा की दिव्य ज्योति प्राप्त हो, यज्ञ के फलस्वरुप स्वर्ग की प्राप्ति हो, यज्ञ के फलस्वरुप संसार का सर्वश्रेष्ठ सुख प्राप्त हो, यज्ञ के फलस्वरुप महायज्ञ करने की सामर्थ्य प्राप्त हो, त्रिवृत्पंचदश आदि स्तोम, यजुर्मन्त्र, ऋचाएँ, साम की गीतियाँ, बृहत्साम और रथन्तर साम – ये सब यज्ञ के फल से मेरे ऊपर अनुग्रह करें, मैं यज्ञ के फल से देवत्व को प्राप्त कर स्वर्ग जाऊँ तथा अमर हो जाऊँ, यज्ञ के प्रसाद से हम हिरण्यगर्भ प्रजापति की प्रियतम प्रजा हों. समस्त देवताओं के निमित्त यह वसोर्धारा हवन सम्पन्न हुआ, ये सभी आहुतियाँ उन्हें भली-भाँति समर्पित हैं।