रोग निवारण सूक्तं | Rog Nivaran Suktam
रोग निवारण सूक्तं (Rog Nivaran Suktam)
१.उत देवा अवहितं देवा उन्न्यथा पुन:।
उतागश्च्कुषं देवा देवा जीव यथा पुन:।।
अर्थ- हे देवो, हे देवो, आप नीचे गिरे हुये को फिर निश्चय पूर्वक ऊपर उठायें। हे देवों, हे देवों, और पाप करने वाले को भी फिर जीवित करें, जीवित करें।
२.द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावत:।
दक्षं ते अन्य आवातु व्यन्यौ वातु यद्रप:।।
अर्थ- ये दो वायु हैं। समुद्र से आने वाला पहला वायु है और दूर भूमि पर से आने वाला दूसरा वायु है। इनमे से एक वायु तेरे पास बल ले आये और दूसरा वायु जो दोष है, उसको दूर करे।
३.आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रप:।
त्वं हि विश्व भेषज देवानां दूत ईयसे।।
अर्थ- हे वायु, औषधि यहां ले आ। हे वायु! जो दोष हैं, वह दूर कर दे। हे सम्पूर्ण औषधियों को साथ रखने वाले वायु! नि:संदेह तू देवों का दूत जैसा होकर चलता है, जाता है, प्रवाहित है।
४.त्रायन्तामिमं देवास्वायन्तां मरुतां गणा:।
त्रायन्तां विश्वा भूतानि यथायमरपा असत।।
अर्थ- हे देवों! इस रोगी की रक्षा करें। हे मरुतों के समूहो! रक्षा करें। जिससे यह रोगी रोग दोष रहित हो जाये।
५.आ त्वागमं शन्ताति भिरिथो अरिष्टतातिभि:।
दक्षं त उग्रमाभारिषं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।
अर्थ- आपके पास शान्ति फैलाने वाले तथा अविनाशी साधनों के साथ आया हूं। तेरे लिये प्रचन्ड बल भर देता हूं। तेरे रोग को दूर कर भगा देता हूं।
६.अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तर:।
अयं में विश्व भेषजोऽयं शिवाभिमर्शन:।।
अर्थ- मेरा यह हाथ भाग्यवान है। मेरा यह हाथ अधिक भाग्यशाली है। मेरा यह हाथ सब औषधियों से युक्त है और मेरा यह हाथ शुभ स्पर्श देने वाला है।
७.हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां जिव्हा वाच: पुरोगवी।
अनामयीत्रुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि।।
अर्थ- दस शाखा वाले दोनों हाथों के साथ वाणी को आगे प्रेरणा करने वाली जीभ है। उन नीरोग करने वाले दोनों हाथों से तुझे हम स्पर्श करते हैं।