Samvad Suktam, संवाद सूक्तं

संवाद सूक्तं | Samvad Suktam

संवाद सूक्तं (Samvad Suktam)

ओ चित् सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान् ।

पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः ॥1 ॥

अर्थ- ( यमी अपने सहोदर भाई यम से कहती है ) – विस्तृत समुद्र के मध्य द्वीप में आकर , इस निर्जन प्रदेश में मैं तुम्हारा सहवास ( मिलन ) चाहती हूँ , क्योंकि माता की गर्भावस्था से ही तुम मेरे साथी हो । विधाता ने मन ही मन समझा है कि तुम्हारे द्वारा मेरे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा ; वह हमारे पिता का एक श्रेष्ठ नाती होगा ।

न ते सखा सख्यं वष्ट्येतत् सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति ।

महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परिख्यन् ॥2 ॥- Samvad Suktam

अर्थ- ( यम ने कहा ) यमी , तुम्हारा साथी यम , तुम्हारे साथ ऐसा सम्पर्क नहीं चाहता ; क्योंकि तुम भी सहोदरा भगिनी हो , अत : अगन्तव्या हो । यह निर्जन प्रदेश नहीं है ; क्योंकि धुलोक को धारण करने वाले महान् बलशाली प्रजापति के पुत्रगण ( देवताओं के चर ) सब कुछ देखते हैं ।

उशन्ति घा ते अमृतास एतदेकस्य चित्त्यजसं मर्त्यस्य ।

नि ते मनो मनसि धाय्यस्मे जन्युः पतिस्तन्वमा विविश्याः ॥3 ॥

अर्थ- ( यमी ने कहा ) यद्यपि मनुष्य के लिए ऐसा संसर्ग निषिद्ध है , तो भी देवता लोग इच्छा पूर्वक ऐसा संसर्ग करते हैं । अत : मेरी इच्छानुकूल तुम भी करो । पुत्र – जन्मदाता पति के समान मेरे शरीर में बैठो ( मेरा सम्भोग करो । ) ।

न यत्पुरा चकमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम ।

गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिः परमं जामि तन्नौ।।4 ।।- Samvad Suktam

अर्थ- ( यम ने उत्तर दिया ) – हमने ऐसा कर्म कभी नहीं किया । हम सत्यवक्ता हैं । कभी मिथ्या कथन नहीं किया है । अन्तरिक्ष में स्थित गन्धर्व या जल के धारक आदित्य तथा अन्तरिक्ष में रहने वाली योषा ( सूर्यस्त्री – सरण्यू ) हमारे माता – पिता हैं । अतः , हम सहोदर बन्धु हैं । ऐसा सम्बन्ध उचित नहीं है ।

गर्भे नु नौ जनिता दम्पती कर्देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः ।

नकिरस्य प्र मिनन्ति व्रतानि वेद नावस्य पृथ्वी उत द्यौः ॥5 ॥

अर्थ- ( यमी ने कहा ) – रूपकर्ता , शुभाशुभ प्रेरक , सर्वात्मक , दिव्य और जनक प्रजापति ने तो हमें गर्भावस्था में ही दम्पति बना दिया । प्रजापति का कर्म कोई लुप्त नहीं कर सकता । हमारे इससे सम्बन्ध को द्यावा – पृथ्वी भी जानते हैं ।

को अस्य वेद प्रथमस्याह्नः क ईं ददर्श क इह प्र वोचत् ।

बृहन्मित्रस्य वरुणस्य धाम कदु बव आहनो वीच्या नृन् ॥6 ॥- संवाद सूक्तं

अर्थ- ( यमी ने पुनः कहा ) प्रथम दिन ( संगमन ) की बात कौन जानता है ? किसने उसे देखा है ? किसने उसका प्रकाश किया है ? मित्र और वरुण का यह जो महान् धाम ( अहोरात्र ) है , उसके बारे में हे मोक्ष , बन्धनकर्ता यम ! तुम क्या कहते हो ?

यमस्य मा यम्यं काम आगन्त्समाने योनौ सहशेय्याय ।

जायेव पत्ये तन्वं रिरिच्यां वि चिद् वृहेव रथ्येव चक्रा ॥7 ॥

अर्थ- ( यमी ने कहा ) जैसे एक शैया पर पत्नी , पति के साथ अपनी देह का उद्घाटन करती है , वैसे ही तुम्हारे पास मैं अपने शरीर को प्रकाशित कर देती हूँ । तुम मेरी अभिलाषा करो । आओ दोनों एक स्थान पर शयन करें । रथ के दोनों चक्कों के समान एक कार्य में प्रवृत्त हों ।

न तिष्ठन्ति न नि मिषन्त्येते देवानां स्पश इह ये चरन्ति ।

अन्येन मदाहनो याहि तूयं तेन वि वृह रथ्येव चक्रा ॥8 ॥- संवाद सूक्तं

अर्थ- ( यम ने उत्तर दिया ) – देवों में जो गुप्तचर हैं , वे रात – दिन विचरण करते हैं । उनकी आँखे कभी बन्द नहीं होती । दुःखदायिनी यमी ! शीघ्र दूसरे के पास जाओ , और रथ के चक्कों के समान उसके साथ एक कार्य करो ।

रात्रीभिरस्मा अहभिर्दशस्येत् सूर्यस्य चक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात् ।

दिवा पृथिव्या मिथुना सबन्धू यमीर्यमस्य बिभृयादजामि ॥9 ॥

अर्थ- ( यम ने पुन : कहा ) – दिन – रात में यम के लिए जो कल्पित भाग हैं , उसे यजमान दें । सूर्य का तेज यम के लिए उदित हो । परस्पर सम्बद्ध दिन , धुलोक और भूलोक यम के बन्धु हैं । यमी , यम भ्राता के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष को धारण करें ।

आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि ।

उप बर्वृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत् ॥10 ॥

अर्थ- ( यम ने पुन : कहा ) भविष्य में ऐसा युग आयेगा , जिसमें भगिनियाँ अपने बन्धुत्व विहीन भ्राता को पति बनावेंगी । सुन्दरी ! मेरे अतिरिक्त किसी दूसरे को पति बनाओ । वह वीर्य सिंचन करेगा ; उस समय उसे बाहुओं में आलिङ्गन करना ।

किं भ्रातासद्यदनाथं भवाति किमु स्वसा यन्निर्ऋतिर्निगच्छात् ।

काममूता बढे तद्रपामि तन्वा मे तन्वं सं पिपृग्धि ॥11 ।

अर्थ- ( यमी ने कहा ) वह कैसा भ्राता है , जिसके रहते भगिनी अनाथा हो जाय , और भगिनी ही क्या है , जिसके रहते भ्राता का दुःख दूर न हो ? मैं काम मूर्च्छिता होकर नाना प्रकार से बोल रही हूँ ; यह विचार करके भली – भाँति मेरा सम्भोग करो ।

न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।

अन्येन मत् प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्टयेतत् ॥12 ॥

अर्थ- ( यम ने उत्तर दिया ) – हे यमी ! मैं तुम्हारे शरीर से अपना शरीर मिलाना नहीं चाहता । जो भ्राता , भगिनी का सम्भोग करता है , उसे लोग पापी कहते हैं । सुन्दरी ! मुझे छोड़कर अन्य के साथ आमोद – प्रमोद करो । तुम्हारा भ्राता तुम्हारे साथ मैथुन करना नहीं चाहता ।

बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम ।

अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ॥13 ॥

अर्थ- ( यमी ने कहा ) हाय यम ; तुम दुर्बल हो । तुम्हारे मन और हृदय को मैं समझ सकती । जैसे – रस्सी घोड़े को बाँधती है , तथा लता जैसे वृक्ष का आलिङ्गन करती है , वैसे ही अन्य स्त्री तुम्हें अनायास ही आलिङ्गन करती है ; परन्तु तुम मुझे नहीं चाहते हो ।

अन्यमूषु त्वं यम्यन्य उ त्वां परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ।

तस्य वा त्वं मन इच्छा स वा तवाऽधा कृणुष्व संविदं सुभद्राम् ॥14 ॥

अर्थ- ( यम ने यमी से कहा ) – तुम भी अन्य पुरुष का ही भली – भाँति आलिङ्गन करो । जैसे लता , वृक्ष का आलिङ्गन करती है , वैसे ही अन्य पुरुष तुम्हें आलिङ्गित करें । तुम उसी का मन हरण करो । अपने सहवास का प्रबन्ध उसी के साथ करो । इसी में मङ्गल कुछ नहीं होगा ।

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