सरस्वती सूक्तं/Saraswati Suktam
सरस्वती सूक्तं/Saraswati Suktam
चतुर्मुखमुखाम्भोजवनहंसवधूर्मम।
मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्ला सरस्वती॥१॥
अर्थ- जो ब्रह्माजी के मुखरूपी कमलों के वन में विचरने वाली राजहंसी हैं, वे सब ओर से श्वेत कान्तिवाली सरस्वती देवी हमारे मन रूपी मानस में नित्य विहार करें॥१॥
नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुरवासिनि।
त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ॥२॥- सरस्वती सूक्तं
अर्थ- हे काश्मीरपुर में निवास करने वाली शारदादेवी! तुम्हें नमस्कार है। मैं नित्य तुम्हारी प्रार्थना करता हूँ। मुझे विद्या (ज्ञान) प्रदान करो॥२॥
अक्षसूत्राङ्कुशधरा पाशपुस्तकधारिणी।
मुक्ताहारसमायुक्ता वाचि तिष्ठतु मे सदा॥३॥- सरस्वती सूक्तं
अर्थ- अपने चार हाथों में अक्षसूत्र, अंकुश, पाश और पुस्तक धारण करने वाली तथा मुक्ताहार से सुशोभित सरस्वती देवी मेरी वाणी में सदा निवास करें॥३॥
कम्बुकण्ठी सुताम्रोष्ठी सर्वाभरणभूषिता।
महासरस्वतीदेवी जिह्वाग्रे सन्निविश्यताम्॥४॥- सरस्वती सूक्तं
अर्थ- शंख के समान सुन्दर कण्ठ एवं सुन्दर लाल ओठों वाली, सब प्रकार के भूषणों से विभूषिता महासरस्वती देवी मेरी जिह्वा के अग्रभाग में सुखपूर्वक विराजमान हों॥४॥
या श्रद्धा धारणा मेधा वाग्देवी विधिवल्लभा।
भक्तजिह्वाग्रसदना शमादिगुणदायिनी॥५॥
अर्थ- जो ब्रह्माजी की प्रियतमा सरस्वती देवी श्रद्धा, धारणा और मेधास्वरूपा हैं, वे भक्तों के जिह्वाग्र में निवास कर शम-दमादि गुणों को प्रदान करती हैं॥५॥
नमामि यामिनीनाथलेखालंकृतकुन्तलाम्।
भवानीं भवसंतापनिर्वापणसुधानदीम्॥६॥
अर्थ- जिनके केश-पाश चन्द्रकला से अलंकृत हैं तथा जो भव-संताप को शमन करने वाली सुधा-नदी हैं, उन सरस्वती रूपा भवानी को मैं नमस्कार करता हूँ॥६॥
यः कवित्वं निरातङ्कं भुक्तिमुक्ती च वाञ्छति।
सोऽभ्यच्चैनां दशश्लोक्या भक्त्या स्तौति सरस्वतीम्॥७॥- Saraswati Suktam
अर्थ- जिसे कवित्व, निर्भयता, भोग और मुक्ति की इच्छा हो, वह इन दस मन्त्रों के द्वारा सरस्वती देवी की भक्तिपूर्वक अर्चना करके स्तुति करे॥७॥
तस्यैवं स्तुवतो नित्यं समभ्यर्च्य सरस्वतीम्।
भक्तिश्रद्धाभियुक्तस्य षण्मासात् प्रत्ययो भवेत्॥८॥- Saraswati Suktam
अर्थ- भक्ति और श्रद्धापूर्वक सरस्वती देवी की विधि पूर्वक अर्चना करके नित्य स्तवन करने वाले भक्त को छ: महीने के भीतर ही उनकी कृपा की प्रतीति हो जाती है॥८॥
ततः प्रवर्तते वाणी स्वेच्छया ललिताक्षरा।
गद्यपद्यात्मकैः शब्दैरप्रमेयैर्विवक्षितैः॥९॥- Saraswati Suktam
अर्थ- तदनन्तर उसके मुख से अनुपम अप्रमेय गद्य-पद्यात्मक शब्दों के रूप में ललित अक्षरों वाली वाणी स्वयमेव निकलने लगती है॥९॥
अश्रुतो बुध्यते ग्रन्थः प्रायः सारस्वतः कविः।
इत्येवं निश्चयं विप्राः सा होवाच सरस्वती॥१०॥
अर्थ- प्रायः सरस्वती का भक्त कवि बिना दूसरों से सुने हुए ही ग्रन्थों के अभिप्राय को समझ लेता है। ब्राह्मणो! इस प्रकार का निश्चय सरस्वती देवी ने अपने श्री मुख से ही प्रकट किया था।॥१०॥
आत्मविद्या मया लब्धा ब्रह्मणैव सनातनी।
ब्रह्मत्वं मे सदा नित्यं सच्चिदानन्दरूपतः॥११॥
अर्थ- ब्रह्मा के द्वारा ही मैंने सनातनी आत्म विद्या को प्राप्त किया और सत्चित्-आनन्द से मुझे नित्य ब्रह्मत्व प्राप्त है॥११॥
प्रकृतित्वं ततः सृष्टिं सत्त्वादिगुणसाम्यतः।
सत्यमाभाति चिच्छाया दर्पणे प्रतिबिम्बवत्॥१२॥
अर्थ- तदनन्तर सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों के साम्य से प्रकृति की सृष्टि हुई। दर्पण में प्रतिबिम्ब के समान प्रकृति में पड़ी चेतन की छाया ही सत्यवत् प्रतीत होती है॥१२॥
तेन चित्प्रतिबिम्बेन त्रिविधा भाति सा पुनः।
प्रकृत्यवच्छिन्नतया पुरुषत्वं पुनश्च ते॥१३॥
अर्थ- उस चेतन की छाया से प्रकृति तीन प्रकार की प्रतीत होती है, प्रकृति के द्वारा अवच्छिन्न होने के कारण ही तुम्हें जीवत्व प्राप्त हुआ है॥१३॥
शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां बिम्बितो ह्यजः।
सत्त्वप्रधाना प्रकृतिर्मायेति प्रतिपाद्यते॥१४॥
अर्थ- शुद्ध सत्वप्रधाना प्रकृति माया कहलाती है। उस शुद्ध सत्त्वप्रधाना माया में प्रतिबिम्बित चेतन ही अज (ब्रह्मा) कहा गया है॥१४॥
सा माया स्ववशोपाधिः सर्वज्ञस्येश्वरस्य हि।
वश्यमायत्वमेकत्वं सर्वज्ञत्वं च तस्य तु॥१५॥
अर्थ- वह माया सर्वज्ञ ईश्वर को अपने अधीन रहने वाली उपाधि है। माया को वश में रखना, एक (अद्वितीय) होना और सर्वज्ञत्व-ये उन ईश्वर के लक्षण हैं॥१५॥
सात्त्विकत्वात् समष्टित्वात् साक्षित्वाजगतामपि।
जगत्कर्तुमकर्तुं वा चान्यथा कर्तुमीशते॥१६॥
अर्थ- सात्त्विक, समष्टिरूप तथा सब लोकों के साक्षी होने के कारण वे ईश्वर जगत्की सृष्टि करने, न करने तथा अन्यथा करनेमें समर्थ हैं ॥१६॥
यः स ईश्वर इत्युक्तः सर्वज्ञत्वादिभिर्गुणैः।
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरूपकम्॥१७॥
अर्थ- इस प्रकार सर्वज्ञत्व आदि गुणों से युक्त वह चेतन ईश्वर कहलाता है। माया की दो शक्तियाँ हैं-विक्षेप और आवरण॥१७॥
विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत्।
अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः॥१८॥
अर्थ- विक्षेप-शक्ति लिंग-शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक के जगत की सृष्टि करती है। दूसरी आवरण-शक्ति है, जो भीतर द्रष्टा और दृश्य के भेद को तथा बाहर ब्रह्म और सृष्टि के भेद को आवृत करती है॥१८॥
आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम्।
साक्षिणः पुरतो भातं लिङ्गदेहेन संयुतम्॥१९॥
अर्थ- वही संसार बन्धन का कारण है, साक्षी को वह अपने सामने लिंग शरीर से युक्त प्रतीत होती है॥१९॥
चितिच्छायासमावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः।
अस्य जीवत्वमारोपात् साक्षिण्यप्यवभासते॥२०॥
अर्थ- कारणरूपा प्रकृति में चेतन की छाया का समावेश होने से व्यावहारिक जगत में कार्य करने वाला जीव प्रकट होता है। उसका यह जीवत्व आरोपवश साक्षी में भी आभासित होता है॥२०॥
आवृतौ तु विनष्टाया भेदे भाते प्रयाति तत्। तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति॥२१॥
या शक्तिस्तद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते। अत्राप्यावृतिनाशेन विभाति ब्रह्मसर्गयोः॥२२॥
अर्थ- आवरण शक्ति के नष्ट होने पर भेद की स्पष्ट प्रतीति होने लगती है (इससे चेतन का जड़ में आत्मभाव नहीं रहता), अतः जीवत्व चला जाता है तथा जो शक्ति सृष्टि और ब्रह्म के भेद को आवृत करके स्थित होती है, उसके वशीभूत हुआ ब्रह्म विकार को प्राप्त हुआ-सा भासित होता है, वहाँ भी आवरण के नष्ट होने पर ब्रह्म और सृष्टि का भेद स्पष्टरूप से प्रतीत होने लगता है॥२१-२२॥
भेदस्तयोर्विकार: स्यात् सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित्।
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम्॥२३॥
अर्थ- उन दोनों में से सृष्टिमें ही विकार की स्थिति होती है, ब्रह्म में नहीं। अस्ति (है), भाति (प्रतीत होता है), प्रिय (आनन्दमय), रूप और नाम-ये पाँच अंश हैं॥२३॥
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम्।
अपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः॥२४॥
अर्थ- इनमें अस्ति, भाति और प्रिय- ये तीनों ब्रह्म के स्वरूप हैं तथा नाम और रूप- ये दोनों जगत के स्वरूप हैं। इन दोनों नाम- रूपों के सम्बन्ध से ही सच्चिदानन्द परब्रह्म जगत्- रूप बनता है॥२४॥
समाधिं सर्वदा कुर्याद्धृदये वाथ वा बहिः।
सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि॥२५॥
अर्थ- साधक को हृदय में अथवा बाहर सर्वदा समाधि साधन करना चाहिये। हृदय में दो प्रकार की समाधि होती है-सविकल्प और निर्विकल्प रूप ॥२५॥
दृश्यशब्दानुभेदेन सविकल्पः पुनर्द्विधा। कामाद्याश्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम्॥२६॥
ध्यायेद् दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः। असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः ॥२७॥
अस्मीतिशब्दविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः। स्वानुभूतिरसावेशाद् दृश्यशब्दाद्यपेक्षितुः ॥२८॥
निर्विकल्पः समाधिः स्यान्निवातस्थितदीपवत्। हृदीयं बाह्यदेशेऽपि यस्मिन् कस्मिंश्च वस्तुनि॥२९॥
समाधिराद्यदृङ्मात्रा नामरूपपृथक् कृतिः। स्तब्धीभावो रसास्वादात् तृतीयः पूर्ववन्मतः॥३०॥
अर्थ- सविकल्प समाधि भी दो प्रकार की होती है- एक दृश्यानुविद्ध और दूसरी शब्दानुविद्ध। चित्त में उत्पन्न होने वाले कामादि विकार दृश्य हैं तथा चेतन आत्मा उनका साक्षी है- इस प्रकार ध्यान करना चाहिये। यह दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि है। मैं असंग, सच्चिदानन्द, स्वयम्प्रकाश, अद्वैतस्वरूप हूँ- इस प्रकार की सविकल्प समाधि शब्दानुविद्ध कहलाती है। आत्मानुभूति- रस के आवेशवश दृश्य और शब्दादि की उपेक्षा करने वाले साधक के हृदय में निर्विकल्प समाधि होती है। उस समय योगी की स्थिति वायु शून्य प्रदेश में रखे हुए दीपक की भाँति अविचल होती है। यह हृदय में होने वाली निर्विकल्प और सविकल्प समाधि है। इसी तरह बाह्य देश में भी जिस किसी वस्तु को लक्ष्य करके चित्त एकाग्र हो जाता है, उसमें समाधि लग जाती है। पहली समाधि द्रष्टा और दृश्य के विवेक से होती है, दूसरी प्रकार की समाधि वह है, जिसमें प्रत्येक वस्तु से उसके नाम और रूप को पृथक् करके उसके अधिष्ठान भूत चेतन का चिन्तन होता है और तीसरी समाधि पूर्ववत् है, जिसमें सर्वत्र व्यापक चैतन्य रसानुभूति जनित आवेश से स्तब्धता छा जाती है॥२६-३०॥
एतैः समाधिभिः षड्भिर्नयेत् कालं निरन्तरम्।
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम्॥३१॥
अर्थ- इन छ: प्रकार की समाधियों के साधन में ही निरन्तर अपना समय व्यतीत करे। देहाभिमान के नष्ट हो जाने और परमात्म-ज्ञान होने पर जहाँ जहाँ मन जाता है, वहीं-वहीं परम अमृतत्व का अनुभव होता है॥३१॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् द्रष्टे परावरे॥३२॥
अर्थ- हृदय की गाँठे खुल जाती हैं, सारे संशय नष्ट हो जाते हैं, उस निष्कल और सकल ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर विद्वान पुरुष के समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं॥३२॥
मयि जीवत्वमीशत्वं कल्पितं वस्तुतो नहि।
इति यस्तु विजानाति स मुक्तो नात्र संशयः॥३३॥
अर्थ- ‘मुझ में जीवत्व और ईश्वरत्व कल्पित हैं, वास्तविक नहीं’ इस प्रकार जो जानता है, वह मुक्त है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ॥३३॥
॥ इति श्री सरस्वती सूक्तम् संपूर्णम् ॥