सूर्य सूक्तं
Surya Suktam
(सूर्य सूक्तं/Surya Suktam)
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्र्च ॥ १ ॥
अर्थ- १) प्रकाशमान रश्मियोंका समूह अथवा राशि-राशि देवगण सूर्यमण्डलके रुपमें उदित हो रहे हैं । ये मित्र, वरुण, अग्नि और संपूर्ण विश्वके प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं । इन्होंने उदित होकर द्युलोक, पृथ्वी और अन्तरिक्षको अपने देदीप्यमान तेजसे सर्वतः परिपूर्ण कर दिया है । इस मण्डलमें जो सूर्य हैं, वे अन्तर्यामी होनेके कारण सबके प्रेरक परमात्मा हैं तथा जङ्गम एवं स्थावर सृष्टिकी आत्मा हैं ।
सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्त्यो न योषामभ्येति पश्र्चात् ।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ॥ २ ॥
अर्थ- २) सूर्य गुणमयी एवं प्रकाशमान उषादेवीके पीछे पीछे चलते है, जैसे कोई मनुष्य सर्वाङ्ग सुन्दरी युवतीका अनुगमन करे । जब सुन्दरी उषा प्रकट होती है, तब प्रकाशके देवता सूर्यकी आराधना करनेके लिये कर्मनिष्ठ मनुष्य अपने कर्तव्य कर्मका सम्पादन करते हैं । सूर्य कल्याणरुप हैं और उनकी आराधनासे कर्तव्य कर्मके पालनसे कल्याणकी प्राप्ति होती हैं ।
भद्रा अश्र्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः ।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः ॥ ३ ॥
अर्थ- ३) सूर्यका यह रश्मि मण्डल अश्र्वके समान उन्हें सर्वत्र पहुँचानेवाला चित्र विचित्र एवं कल्याणरुप है । यह प्रतिदिन तथा अपने पथपर ही चलता है एवं अर्चनीय तथा वन्दनीय है । यह सबको नमनकी प्रेरणा देता है और स्वयं द्युलोकके ऊपर निवास करता है । यह तत्काल द्युलोक और पृथ्वीका परिमन्त्रण कर लेता है ।
तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ४ ॥
अर्थ- ४) सर्वान्तर्यामी प्रेरक सूर्यका यह ईश्र्वरत्व और महत्व है कि वे प्रारम्भ किये हुए, किंतु अपरिसमाप्त कृत्यादि कर्मको ज्यों का त्यों छोडकर अस्ताचल जाते समय अपनी किरणोंको इस लोकसे अपने आपमें समेट लेते हैं । साथ ही उसी समय अपने किरणों और घोडोंको एक स्थानसे खींचकर दूसरे स्थानपर नियुक्त कर देते हैं । उसी समय रात्रि अन्धकारके आवरणसे सबको आवृत्त कर देती है ।
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रुपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ ५ ॥-Surya Suktam
अर्थ- ५) प्रेरक सूर्य प्रातःकाल मित्र, वरुण और समग्र सृष्टिको सामनेसे प्रकाशित करनेके लिये प्राचीके आकाशीय क्षितिजमें अपना प्रकाशक रुप प्रकट करते हैं । इनकी रसभोजी रश्मियॉं अथवा हरे घोडे बलशाली रात्रिकालीन अन्धकारके निवारणमें समर्थ विलक्षण तेज धारण अन्धकारकी सृष्टि होती है ।
अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ ६ ॥
अर्थ- ६) हे प्रकाशमान सूर्य रश्मियो आज सूर्योदयके समय इधर उधर बिखरकर तुम लोग हमें पापोंसे निकालकर बचा लो । न केवल पापसे ही, प्रत्युत जो कुछ निन्दित है, गर्हणीय है, दुःख दारिद्र्य है, सबसे हमारी रक्षा करो । जो कुछ हमने कहा है; मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और द्युलोकके अधिष्ठातृ देवता उसका आदर करें, अनुमोदन करें, वे भी हमारी रक्षा करें ।- सूर्य सूक्तं