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Lal Dayal Biography

लाल दयाल महाराज, Lal Dayal Biography, Lal Dayal Maharaj Facts

Lal Dayal Biography (लाल दयाल महाराज): Shri 1008 Bawa Lal Dayal ji Maharaj are also known as the Paramhans Yogishwar Satguru Bawa Lal Dayal Ji Maharaj in the world. The brief history of his life is that he was a saint who born at a Town named Kasur, District Lahore, of Punjab province of the undivided India. He was of a Kshatri Varna. His sub-cost was Dhawan. His father Sh. Bhola Mal was a Patwari in the regime of Turk Emperor. The name of his respected mother was Smt. Krishna Devi. At that time the date of births were registered either in the Hijri Era or in Bikrami Era. Muslims used to write their date of birth in Hijri Era and the Hindu were writing their date of births in Bikrami Samat. At that time the date of births were not written in Christian era in India.

Being a Hindu his date of birth was registered in Bikrami Era. So according to the available record Shri Bawa Lal Ji Maharaj were born on the DOOJ of Shukla Paksh, Magh Month of Bikrami Samat of 1412. It was “19th January” There is a difference of approximately 57 years between the Christian Era and the Bikrami Era. For example the bikrami Samat of 2062 started from 13 th April, 2005. It indicates that the difference between the two eras is approximately 57 years. Now if we minus 57 years from the Vikrami samvat 1412 it come to 1355 A.D.

The Magh month (known as margshish month also) normally comes either in the end of January or in the beginning of month of February. It is thus clear that Shri Bawa Lal Dayal Ji Maharaj(Lal Dayal Biography) were born in the winter season. The year of death of Shri Bawa Lal Ji (Lal Dayal Biography) is Kartik Shudi Dasmi of 1712 Bikrami. Similarly if we deduct 57 years from 1712 the year of death according to A.D. Era is 1655. The Kartik month normally fall in the end of month of October or in the beginning of November. This date fall 8 days after the Bhiya Dooj. Ten days after the Deepawali utsav.

The date of death is fully confirmed as this day is celebrated at Village Rampur Haler, Tehsil Dasuya, and District Hoshiarpur. Moreover the Sharadh of Shri Bawa Lal ji(Lal Dayal Biography) organized at Bawa Lal Ji Gaddi, of Hafizabad now at Panipat. Bawa Lal Ji(Lal Dayal Biography) was a great devotee of Holy Ganga. He started his day with a morning dip in Ganga at Hardwar and journeyed to and fro with Yogic powers. One day he could not make it, Ganga herself appeared before him and gushed out from a spot near his feet. Then onwards, Bawa Lal Ji bathed in that gushing Holy pond. One day, Holy Ganga again appeared and suggested Bawa Lal Ji(Lal Dayal Biography) to leave.

Saharanpur and make Punjab his next abode. He carried out her advice and left for Punjab. On arrival in Punjab, he reached a small town known as Kalanaur. Thousands of people, men and women, young and old, thronged to join Bawa Lal Ji’s(Lal Dayal Biography) prayers, ‘Sankeertans’ and discourse sessions and became his follower-devotees. One among them was Shri Dhyan Dass, a devout, who turned deeply devoted to Bawa Lal Ji. One day Bawa Lal Ji found Dhyan Dass gloomy and made out that he was thinking of making a hermitage for him (Lal Dayal Biography).

Bawa Lal Ji then pointed out towards a secluded place at six miles distance from Kalanaur suitable for the Ashram. Shri Dhyan Dass’s joy knew no bounds and he soon built an Ashram which was latter named Dhyanpur by Bawa Lal Ji Maharaj(Lal Dayal Biography) himself. It is now looked upon as a great Shrine. He initiated twenty two disciples here. Prominent among them were Shri Dhyan Dass, Shri Gurmukh Lal and Shri Kanshi Ram. All of them were profoundly devoted to Bawa Lal Dayal Ji Maharaj and worked as his missionaries spreading Master’s message far and wide.

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लाल दयाल महाराज जीवन परिचय | Lal Dayal Biography

विक्रमी सम्वत 1412 सन 1356 माघ शुक्ला द्वितीया सोमवार को पिता भोला राम कुलीन क्षत्री और माता कृष्ण देवी जी के घर बावा लाल दयाल महाराज जी ने जन्म लिया। आठ वर्ष की आयु में ही धर्म ग्रंथ पढ़ डाले। पिता जी ने उन्हें अपनी गाय और भैंस चराने के लिए जंगल में भेजा। नदी किनारे एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। इतने में साधुओं का एक झुंड उधर आ निकला और उनके प्रमुख संत ने देखा कि कड़कती धूप में भी वृक्ष की छाया में कोई अंतर नहीं पड़ा जबकि दूसरे वृक्षों की छाया अपने स्थान से दूर हो गई है। उनके और निकट आने पर उन्होंने देखा कि बालक के सिर पर शेष नाग ने छाया कर रखी है, इतने में बालक ने उठ कर बड़े महात्मा जी को प्रणाम किया जिनका नाम चैतन्य स्वामी था। उन्होंने बावा लाल दयाल महाराज को कहा कि बेटा “हरिओम तत सत ब्रह्म सच्चिदानंद कहो’ और भक्ति में हर समय मग्न रहो।

इतने में एक शिष्य ने कहा कि सबको भूख सता रही है। इस पर स्वामी चैतन्य जी ने कुछ चावल ले कर मिट्टी के बर्तन में डाले और अपने पांवों का चूल्हा बना कर योग अग्नि से उन्हें पकाया। पल भर में चावल बन गए और सबने खाए। बाद में हांडी को फोड़ दिया और तीन दाने बावा लाल दयाल को भी दिए जिससे उनकी अंतदृष्टि खुल गई और घर आकर माता-पिता से स्वामी चैतन्य जी को अपना गुरु बनाने की अनुमति लेकर उनकी मंडली में शामिल हो गए। कुछ समय उन्हें अपने साथ रखने के बाद उन्होंने बावा लाल दयाल महाराज जी को स्वतंत्र रूप से भ्रमण की आज्ञा दे दी और उन्होंने धर्म प्रचार जोर-शोर से शुरू कर दिया जिससे दिल्ली, नेपाल, यू.पी.सी.पी. पंजाब में आपके प्रति लोगों का श्रद्धा भाव बढ़ा, इतना ही नहीं काबुल के बहुत से पठानों ने अपना गुरु माना है। सिंध में भी बहुत से मुसलमानों ने उन्हें अपना पीर माना है और उन्होंने उनकी कब्र भी बना रखी है।

लाल दयाल महाराज लाहौर से हरिद्वार पहुंचे। गंगा किनारे हिमालय में कई वर्षों तक रह कर तपस्या करने के पश्चात वह गांव सहारनपुर आ गए और उन्होंने गांव के उत्तर की ओर एक गुफा में तप करना प्रारंभ कर दिया। एक बार वह जंगल में घूम रहे थे कि उन्हें प्यास लगी मगर आसपास पानी न होने से एक गाय चराने वाले लड़के से एक बिना बछड़े वाली गाय से ही दूध निकाल कर अपनी प्यास बुझा ली तो इस चमत्कार की खबर सारे क्षेत्र में फैल गई। इनके आश्रम में हिन्दू और मुसलमान आ आकर जब अपनी मनोकामनाएं पूरी करने लगे तो उनके विरोधियों ने सूबेदार खिजर खां के कान भरे कि एक काफिर जादू टोने करके लोगों को गुमराह कर रहा है और भारी तादाद में मुसलमान भी उसके शिष्य बन गए हैं। उनमें एक प्रमुख मुसलमान फकीर हाजी कमल शाह का मकबरा आज भी आश्रम में है।

भारत भर में तमाम वैष्णव पूज्य स्थानों में दरबार ध्यानपुर का विशेष पूज्य स्थान माना जाता है। न केवल हिन्दुओं अपितु अफगानिस्तान के मुसलमान पठानों में भी यह पूर्ण आदर भाव पाता रहा है। अंग्रेज शासकों की कूटनीति के कारण देश के बंटवारे के परिणामस्वरूप आज हिन्दू और मुसलमान आपस में उलझ रहे हैं। आज से 660 वर्ष पूर्व हालांकि वैष्णव हिन्दू संत बावा लाल दयाल महाराज तथा अन्य कई महापुरुषों ने लगातार एकता के लिए प्रयत्न जारी रखे जिनमें उस समय के मुस्लिम हुक्मरानों ने भी अपना योगदान दिया है। इसमें विशेष कर ताजमहल के निर्माता मुगल शहंशाह शाहजहां और उसके बड़े बेटे राजकुमार दारा शिकोह पेश रहे। दारा शिकोह ने अपनी पुस्तक हसनत-उल-आरिफिन में लिखा है कि बावा लाल जी  एक महान योगी हैं। इनके समान प्रभावशाली और उच्च कोटि का कोई महात्मा हिन्दुओं में मैंने नहीं देखा है।

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