उत्तर्नारायण अनुवाक/Uttarnarayan Anuvaak
उत्तर्नारायण अनुवाक/Uttarnarayan Anuvaak
अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताग्रे।
तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥१॥
अर्थ- पृथ्वी आदि की सृष्टि के लिये अपने प्रेम के कारण वह पुरुष जल आदि से परिपूर्ण होकर पूर्व ही छा गया। उस पुरुष के रूप को धारण करता हुआ सूर्य उदित होता है, जिसका मनुष्य के लिये प्रधान देवत्व है॥१॥
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥२॥
अर्थ- मैं अज्ञान अन्धकार से परे आदित्य-प्रतीकात्मक उस सर्वोत्कृष्ट पुरुष को जानता हूँ। मात्र उसे जानकर ही मृत्यु का अतिक्रमण होता है। शरण के लिये अन्य कोई मार्ग नहीं ॥२॥
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते।
तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा॥३॥
अर्थ- वह परमात्मा आभ्यन्तर में विराजमान है। उत्पन्न न होने वाला होकर भी वह नाना प्रकार से उत्पन्न होता है। संयमी पुरुष ही उसके स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं। सम्पूर्ण भूत उसी में सन्निविष्ट हैं ॥३॥
यो देवेभ्य आतपति यो देवानां पुरोहितः।
पूर्वो यो देवेभ्यो जातो नमो रुचाय ब्राह्मये॥४॥
अर्थ- जो देवताओं के लिये सूर्य रूप से प्रकाशित होता है, जो देवताओं का कार्य साधन करने वाला है और जो देवताओं से पूर्व स्वयं भूत है, उस देदीप्यमान ब्रह्म को नमस्कार है॥४॥
रुचं ब्राह्मं जनयन्तो देवा अग्रे तदब्रुवन्।
यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात्तस्य देवा असन् वशे॥५॥
अर्थ- उस शोभन ब्रह्म को प्रथम प्रकट करते हुए देवता बोले- जो ब्राह्मण तुम्हें इस स्वरूप में जाने, देवता उसके वश में हों॥५॥
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम्।
इष्णन्निषाणामुं म इषाण सर्वलोकं म इषाण॥६॥
अर्थ- समृद्धि और सौन्दर्य तुम्हारी पत्नी के रूप में हैं, दिन तथा रात तुम्हारे अगल-बगल हैं, अनन्त नक्षत्र तुम्हारे रूप हैं, द्यावा-पृथिवी तुम्हारे मुखस्थानीय हैं। इच्छा करते समय परलोक की इच्छा करो। मैं सर्वलोकात्मक हो जाऊँ, ऐसी इच्छा करो, ऐसी इच्छा करो॥६॥
॥ इति नारायण सूक्तम् संपूर्णम् ॥