वाक् सूक्तं | Vak Suktam
वाक् सूक्तं (Vak Suktam)
ॐ अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥१॥
अर्थ- ब्रह्मस्वरूपा मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्व देवता के रूप में विचरण करती हूँ अर्थात् मैं ही उन-उन रूपों में भास रही हूँ। मैं ही ब्रह्म रूप से मित्र और वरुण दोनों को धारण करती हूँ। मैं ही इन्द्र और अग्नि का आधार हूँ। मैं ही दोनों अश्विनी कुमारों का भी धारण-पोषण करती हूँ॥१॥
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥२॥
अर्थ- मैं ही शत्रुनाशक, कामादि दोष-निवर्तक, परमाहाददायी, यज्ञगत सोम, चन्द्रमा, मन अथवा शिव का भरण-पोषण करती हूँ। मैं ही त्वष्टा, पूषा और भग को भी धारण करती हूँ। जो यजमान यज्ञ में सोमाभिषव के द्वारा देवताओं को तृप्त करने के लिये हाथ में हविष्य लेकर हवन करता है, उसे लोक-परलोक में सुखकारी फल देने वाली मैं ही हूँ॥२॥
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्य्यावेशयन्तीम् ॥३॥
अर्थ- मैं ही राष्ट्री अर्थात् सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी हैं। मैं उपासकों को उनका अभीष्ट वसु-धन प्राप्त कराने वाली हूँ। जिज्ञासुओं के साक्षात् कर्तव्य परब्रह्म को अपनी आत्मा के रूप में मैंने अनुभव कर लिया है। जिनके लिये यज्ञ किये जाते हैं, उनमें मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ। सम्पूर्ण प्रपंच के रूप में मैं ही अनेकसी होकर विराजमान हूँ। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर में जीवरूप में मैं अपने आपको ही प्रविष्ट कर रही हूँ। भिन्न-भिन्न देश, काल, वस्तु और व्यक्तियों में जो कुछ हो रहा है, किया जा रहा है, वह सब मुझमें मेरे लिये ही किया जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व के रूप में अवस्थित होने के कारण जो कोई जो कुछ भी करता है, वह सब मैं ही हूँ॥३॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति य: प्राणिति य ईं श्रृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥४॥
अर्थ- जो कोई भोग भोगता है, वह मुझ भोक्त्री की शक्ति से ही भोगता है। जो देखता है, जो श्वासोच्छवास रूप व्यापार करता है और जो कही हुई बात सुनता है, वह भी मुझसे ही। जो इस प्रकार अन्तर्यामि रूप से स्थित मुझे नहीं जानते, वे अज्ञानी दीन, हीन, क्षीण हो जाते हैं। मेरे प्यारे सखा! मेरी बात सुनो- मैं तुम्हारे लिये उस ब्रह्मात्मक
वस्तु का उपदेश करती हूँ, जो श्रद्धा-साधन से उपलब्ध होती है॥४॥
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषि तं सुमेधाम् ॥५॥
अर्थ- मैं स्वयं ही इस ब्रह्मात्मक वस्तु का उपदेश करती हूँ। देवताओं और मनुष्यों ने भी इसी का सेवन किया है। मैं स्वयं ब्रह्मा हूँ। मैं जिसकी रक्षा करना चाहती हैं, उसे सर्वश्रेष्ठ बना देती हूँ, मैं चाहूँ तो उसे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा बना दूँ, अतीन्द्रियार्थ ऋषि बना दूँ और उसे बृहस्पति के समान सुमेधा बना हूँ। मैं स्वयं अपने स्वरूप ब्रह्मभिन्न आत्माका गान कर रही हूँ॥५॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥६॥
अर्थ- मैं ही ब्रह्म ज्ञानियों के द्वेषी हिंसारत त्रिपुरवासी त्रिगुणाभिमानी अहंकार असुर का वध करने के लिये संहारकारी रुद्र के धनुष पर ज्या (प्रत्यंचा) चढ़ाती हूँ। मैं ही अपने जिज्ञासु स्तोताओं के विरोधी शत्रुओं के साथ संग्राम करके उन्हें पराजित करती हूँ। मैं ही धुलोक और पृथिवी में अन्तर्यामि रूप से प्रविष्ट हूँ॥६॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामू द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि॥७॥
अर्थ- इस विश्व के शिरोभाग पर विराजमान झुलोक अथवा आदित्य रूप पिता का प्रसव में ही करती रहती हूँ। उस कारण में ही तन्तुओं में पटके समान आकाशादि सम्पूर्ण कार्य दीख रहा है। दिव्य कारण-वारिरूप समुद्र, जिसमें सम्पूर्ण प्राणियों एवं पदार्थों का उदय-विलय होता रहता है, वह ब्रह्म चैतन्य ही मेरा निवास स्थान है। यही कारण है कि मैं सम्पूर्ण भूतों में अनुप्रविष्ट होकर रहती हूँ और अपने कारण भूत मायात्मक स्वशरीर से सम्पूर्ण दृश्य कार्य का स्पर्श करती हूँ॥७॥
अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा।- वाक् सूक्तं
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना संबभूव॥८॥
अर्थ- जैसे वायु किसी दूसरे से प्रेरित न होने पर भी स्वयं प्रवाहित होता है, उसी प्रकार मैं ही किसी दूसरे के द्वारा प्रेरित और अधिष्ठित न होने पर भी स्वयं ही कारण रूप से सम्पूर्ण भूतरूप कार्यों का आरम्भ करती हूँ। मैं आकाश से भी परे हूँ और इस पृथ्वी से भी। अभिप्राय यह है कि मैं सम्पूर्ण विकारों से परे, असंग, उदासीन, कूटस्थ ब्रह्मचैतन्य हूँ। अपनी महिमा से सम्पूर्ण जगत के रूप में मैं ही बरत रही हूँ, रह रही हूँ॥८॥- Vak Suktam