वरुण सूक्तं | Varuna Suktam
वरुण सूक्तं (Varuna Suktam)
देव वरुण व्रतम्मि।नीमसि द्यविद्यवि॥१॥
अर्थ- हे वरुणदेव ! जिस प्रकार इस संसार में प्रजागण आलस्य के वश में होकर अपने धर्म को नहीं करते हैं, उसी प्रकार हम भी प्रतिदिन जाड्यजन्य प्रमाद के वश में होकर जो कुछ आराधन-रूप कर्म नहीं कर सके, आप उस प्रमादरूप कर्म को परिहार-पूर्वक साङ्ग अर्थात् पूर्ण कीजिये॥१॥
मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः।मा हृणानस्य मन्यवे॥२॥
अर्थ- हे वरुण ! आप पापियों का अनादर एवं वध करनेवाले हैं, किंतु आप हमें वध के योग्य न बनाइये अर्थात् हमारा वध न कीजिये।इसी प्रकार क्रोधयुक्त आप हमें अपना क्रोधभाजन न बनाइये अर्थात् हमपर क्रोध न कीजिये॥२॥
वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्।गीर्भिर्वरुण सीमहि॥३॥
अर्थ- हे वरुण ! जिस प्रकार रथ का स्वामी दूर जाने के कारण थके घोड़ों को घास, जल आदि देकर प्रसन्न करता है,उसी प्रकार हम अपने सुख के लिये आपके मन को स्तुतियों के द्वारा प्रसन्न करते हैं॥३॥
परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये।वयो न वसतीरुप॥४॥
अर्थ- हे वरुण ! मेरी (शुन:शेप की) क्रोधरहित शान्त बुद्धि मूल्यवान् जीवन को प्राप्त करने के लिये अनावृत्ति भाव से आपमें उसी प्रकार लगी रहती हैं,जिस प्रकार पक्षी दिनभर भटककर सायंकाल अपने निवासस्थान (घोंसले)-को प्राप्त करते हैं॥४॥
कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे।मृळीकायोरुचक्षसम्॥५॥
अर्थ- अपने सच्चे सुख को प्राप्त करने के लिये हम कब अति बलवान् समस्त प्राणियों के नेता एवं सर्वद्रष्टा वरुण का आराधनकर्म में साक्षात्कार कर सकेंगे ?॥५॥
तदित् समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः।धृतव्रताय दाशुषे॥६॥
अर्थ- जिसने वरुणाराधन कर्म का सम्पादन किया है तथा हवि प्रदान की हैं,ऐसे यजमान को चाहनेवाले मित्रावरुणदेव हम ऋत्विजों से दिये हुए साधारण हवि को भक्षण करते हैं॥६॥
वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्।वेद नावः समुद्रियः॥७॥
अर्थ- सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञ होने के कारण जो वरुण आकाशमार्ग से जाते हुए पक्षियों के आधारस्थान को तथा जल में चलनेवाली नौकाओं के आधारस्थान को जानते हैं,वे वरुण हमें मृत्युरूपी पाशबन्धन से मुक्त करें॥७॥
वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः ।वेदा य उपजायते॥८॥
अर्थ- जिन्होंने जगत् की उत्पत्ति, रक्षा एवं विनाश आदि कार्यो को स्वीकार किया है,वे सर्वज्ञ वरुण क्षण-क्षण में उत्पद्यमान प्राणियों के सहित चैत्रादि से फाल्गुनपर्यन्त बारह मासों को एवं संवत्सर के समीप उत्पन्न होनेवाला तेरहवाँ जो अधिकमास है, उसको भी जानते हैं,वे वरुण हमें मृत्युरूपी पाशबन्धन से मुक्त करें॥८॥
वेद वातस्य वर्तनिमुरोर्ऋष्वस्य बृहतः।वेदा ये अध्यासते॥९॥
अर्थ- जो वरुणदेव विशाल,शोभन और महान् वायु का भी मार्ग जानते हैं और ऊपर निवास करनेवाले देवताओं को भी जानते हैं, वे वरुणदेव हमें मृत्युरूपी पाशबन्धन से मुक्त करें॥९॥
नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्या३स्वा।साम्राज्याय सुक्रतुः॥१०॥
अर्थ- जिन्होंने प्रजापालनादि कार्यों का नियम स्वीकार किया है तथा जो प्रजाहितकर्ता वरुण हैं; जो सूर्य, चन्द्र आदि दैवी प्रजाओं में साम्राज्यसिद्धि के लिये उनके पास बैठे हुए हैं,वे वरुण हमें मृत्युरूपी पाशबन्धन से मुक्त करें॥१०॥
अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति।कृतानि या च कर्त्वा॥११॥
अर्थ- जिन जगदुत्पत्त्यादि आश्चर्यों को प्रथम वरुण ने किया है तथा अन्य जो आश्चर्य कार्य उनके द्वारा किये जायँगे,उन सभी अद्भुत कार्यों को ज्ञानवान् पुरुष जानते हैं।वे अद्भुत कार्यकर्ता वरुण हमें मृत्युरूपी पाशबन्धन से मुक्त करें॥११॥
स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्। प्र ण आयूंषि तारिषत्॥१२॥
अर्थ- प्रजापालनादि शोभन कार्यों को करनेवाले आदित्यरूपी वरुण सर्वदा हमें सन्मार्ग में चलायें तथा हमारी आयु को बढ़ायें॥१२॥
बिभ्रद् द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्प।रि स्पशो नि षेदिरे॥१३॥
अर्थ- सुवर्णमय कवच को धारण करनेवाले आदित्यरूपी वरुण अपने पुष्ट शरीर को रश्मि-समुदाय से ढककर रखते हैं।सम्पूर्ण जगत् को स्पर्श करनेवाली उनकी किरणें सुवर्ण आदि समस्त पदार्थों में व्याप्त रहती हैं॥१३॥
न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्।न देवमभिमातयः॥१४॥
अर्थ- सर्वदा प्राणियों की हिंसा करने के इच्छुक क्रूर जन्तु भी भयभीत होकर वरुण के प्रति हिंसा की इच्छा छोड़ देते हैं। प्राणियों से अकारण द्वेष करनेवाले सिंह,व्याघ्र आदि भी वरुण के प्रति द्रोहभाव छोड़ देते हैं।वरुण में ईश्वरत्व होने के कारण पुण्य एवं पाप भी उन्हें स्पर्श नहीं करते हैं॥१४॥
उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा॥१५॥- varuna suktam
अर्थ- जिन वरुण ने वृष्टि द्वारा मनुष्यों के जीवनार्थ नाना प्रकार के अन्नों को पर्याप्त-मात्रा में उत्पन्न किया है,उन्हीं वरुण ने विशेषकर हम वरुणोपासक जनों की उदरपूर्ति के लिये पर्याप्तमात्रा में अन्न उत्पन्न किया है॥१५॥
परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु। इच्छन्तीरुरुचक्षसम्॥१६॥
अर्थ- जिस प्रकार गौएँ अपने गोष्ठ (गोशाला)-में पहुँच जाती हैं और दिन-रात भी वहाँ से टलती नहीं,उसी प्रकार पुण्यात्मा लोगों के दर्शनीय वरुणदेव (परमेश्वर)-को चाहती हुई हमारी (शुनःशेप की) बुद्धिवृत्तियाँ निवृत्ति से रहित होकर वरुण में लग रही हैं॥१६ ॥
सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्।होतेव क्षदसे प्रियम्॥१७ ॥
अर्थ- हे वरुण ! मेरे जीवनरक्षार्थ दुग्ध,घृतादि मधुर हवि ‘अंजःसव’ नामक यज्ञ में सम्पादित किया गया है, अतः हवनकर्ता जिस प्रकार हवन के बाद मधुर दुग्धादि पदार्थों का भक्षण करता है,उसी प्रकार आप भी घृतादि प्रिय हवि भक्षण करते हैं।हवि के स्वीकार से तृप्त आप और जीवित मैं – दोनों एकत्रित होकर प्रिय वार्तालाप करें॥१७॥- varuna suktam
दर्श नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि।एता जुषत मे गिरः॥ १८॥
अर्थ- सभी के देखने योग्य तथा मेरे अनुग्रहार्थ आविर्भूत होनेवाले वरुणदेव का मैंने साक्षात्कार किया है।मैंने पृथ्वी पर उनके रथ को भली-भाँति देखा है।मेरी इन स्तुतिरूप वाणियों को वरुणदेव ने श्रवण किया है॥१८॥
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।त्वामवस्युरा चके॥१९॥- वरुण सूक्तं
अर्थ- हे वरुण! आप मेरी इस पुकार को सुनें । मुझे आज सुखी करें।अपनी रक्षा चाहनेवाला मैं आपकी स्तुति करता हूँ॥१९॥
त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि।स यामनि प्रति श्रुधि॥२०॥
अर्थ- हे मेधावी वरुण ! आप द्युलोक एवं भूलोकरूप सम्पूर्ण जगत् में उद्दीप्त हो रहे हैं।आप हमारे कल्याण के लिये ‘मैं तेरी रक्षा करूंगा’ ऐसा प्रत्युत्तर दें’॥२०॥
उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत । अवाधमानि जीवसे॥२१॥
अर्थ- हे वरुण! आप हमारे सिर में बँधे पाश को दूर कर दें तथा जो पाश मेरे ऊपर लगा है,उसे भी तोड़-फोड़कर नष्ट कर दें एवं पैर में बँधे हुए पाश को भी खोलकर नष्ट कर दें॥२१॥।- वरुण सूक्तं