विष्णु सूक्तं | Vishnu Suktam
विष्णु सूक्तं (Vishnu Suktam)
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् ।
समूढमस्य पाँेसुरे स्वाहा ॥ १ ॥
१) अर्थ- सर्वव्यापी परमात्मा विष्णुने इस जगत्को धारण किया है और वे ही पहले भूमि, दूसरे अन्तरिक्ष और तीसरे द्युलोकमें तीन पदोंको स्थापित करते हैं; अर्थात् सर्वत्र व्याप्त हैं । इन विष्णुदेवमें ही
समस्त विश्व व्याप्त है । हम उनके लिये हवि प्रदान करते है ।
इरावती धेनुमती हि भूतँेसूयवसिनी मनवे दशस्या ।
व्यस्कभ्नारोदसीविष्णवेतेदाधर्थपृथिवीमभितोमयूखैः स्वाहा ॥ २ ॥
२) अर्थ- यह पृत्वी सबके कल्याणार्थ अन्न और गायसे युक्त, खाद्य-पदार्थ देनेवाली तथा हितके साधनोंको देनेवाली है । हे विष्णुदेव! आपने इस पृथ्वीको अपनी किरणोंके द्वारा सब ओर अच्छी प्रकारसे धारण कर रखा है । हम आपके लिये आहुति प्रदान करते हैं ।
देवश्रुतौ देवेष्वा घोषतं प्राची प्रेतमध्वरं कल्पयन्ती ऊर्ध्वं यज्ञं नयतं मा जिह्वरतम् ।
स्वं गोष्ठमा वदतं देवी दुर्ये आयुर्मा निर्वादिष्टं प्रजां मा निर्वादिष्टमत्र रमेथां वर्ष्मन् पृथिव्याः ॥ ३ ॥
३) अर्थ- आप देवसभामें प्रसिद्ध विद्वानोंमे यह कहें । इस यज्ञके समर्थनमें पूर्व दिशामें जाकर यज्ञको उच्च बनायें, अधःपतित न करें । देवस्थानमें रहनेवाले अपनी गोशालामें निवास करें । जबतक आयु है तबतक धनादिसे सम्पन्न बनायें । संततियोंपर अनुग्रह करें । इस सुखप्रद स्थानमें आप सदैव निवास करें ।
विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजाँेसि ।
यो अस्कभायदुत्तरँे सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायो विष्णवे त्वा ॥ ४ ॥
४) अर्थ- जिन सर्वव्यापी परमात्मा विष्णुने अपने सामर्थ्यसे इस पृथ्वीसहित अन्तरिक्ष, द्युलोकादि स्थानोंका निर्माण किया है तथा जो तीनों लोकोंमें अपने पराक्रमसे प्रशंसित होकर उच्चतम स्थानको शोभायमान करते हैं, उन सर्वव्यापी परमात्माके किन-किन यशोंका वर्णन करें ।
दिवो वा विष्ण उत वा पृथिव्या महो वा विष्ण उरोरन्तरिक्षात् ।
उभा हि हस्ता वसुना पृणस्वा प्र यच्छ दक्षिणादोत सव्याद्विष्णवे त्वा ॥ ५ ॥
५) अर्थ- हे विष्णु! आप अपने अनुग्रहसे समस्त जगत्को सुखोंसे पूर्ण कीजिये और भूमिसे उत्पन्न पदार्थ और अन्तरिक्षसे प्राप्त द्रव्योंसे सभी सुख निश्र्चय ही प्रदान करें । हे सर्वान्ततर्यामी प्रभु! दोनों हाथोंसे समस्त सुखोंको प्रदान करनेवाले विष्णु! हम आपको सुपूजित करते हैं ।
प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः।
यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्र्वा ॥ ६ ॥
६) अर्थ- भयंकर सिंहके समान पर्वतोंमे विचरण करनेवाले सर्वव्यापी देव विष्णु! आप अतुलित पराक्रमके कारण स्तुति-योग्य हैं । सर्वव्यापक विष्णुदेवके तीनों स्थानोंमें सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं ।
विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रे स्थो विष्णोः स्यूनसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि ।
वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥ ७ ॥
७) अर्थ- इस विश्वमें व्यापक देव विष्णुका प्रकाश निरन्तर फैल रहा है । विष्णुके द्वारा ही यह विश्व स्थिर है तथा इनसे ही इस जगत्का विस्तार हुआ है और कण-कणमें ये ही प्रभु व्याप्त हैं । जगत्की उत्पत्ति करनेवाले हे प्रभु! हम आपकी अर्चना करते हैं ।